मां की वसीयत और मंदिर के पैय्यां का पेड़

ये कहानी पीपलकोटी की कहानियों का एक सिलसिला है जिसका श्रीगणेश मेरी माता जी के 8 मार्च की मध्य रात्री के निधन के बाद से शुरू हुआ है ……

क्या आपको भी याद है. आपके बचपन में पीले रंग का डालडा एक पांच लीटर का डिब्बा होता था जिस पर दो ताड़ के पेड़ होते थे जो एकदूसरे से शीर्ष पर मिले होते थे – ऐसे ही एक पुराने खाली पीले रंग के टिन के डिब्बे में मैंने एक पैय्यां ( पदम् काष्ठ ) का पेड़ जो उसमे खुद जम गया था को कई साल तक अपने घर के पास डाक बंगले में वैसे ही पाला, जैसे – आजकल हमारे घर के आगे देवदार का वो पौधा बढ़ रहा है जिसे मैंने बंगले के ही लोहे के गोल गमले में लगाया था. ये 2 देवदार के पेड़ मैंने पीपलकोटी वल्ला मंगरीगाड में वन विभाग के श्री कंडारी जी द्वारा बनायी गयी नरसरी से शायद वर्ष 1988 में चुराये थे लेकिन उसमे से एक ही देवदार बच पाया है.


अरे तो मैं , कह रहा था मैने, गोल डालडे के डिब्बे में जो पदम् या पैय्यां का पेड़ जम रहा था उसको कुछ वर्षो तो क्या शायद 12-15 वर्ष तक उगते, थोडा आगे बढ़ते- फिर सूख जाते हुए देखा. उसके तने का शीर्ष ऊपर आसमान की तरफ बढ़ता लेकिन जमीन की तरफ तो डालडे के डिब्बे का लोहा या आधार जड़ों की प्रगति में आड़े आ जाता और ये पेड़ 12–15 साल में दुबला पतला ही रहा एवं 3-4 फीट तक ही बढ़ पाया. पर ये पैय्यां का पेड़ कुछ साल तो अब हमारे घर पर ही रहा क्यूंकि डाक बंगले से पिताजी रिटायर हो गए थे – तो वहाँ जो भी गमले थे –कुछ हमारे , कुछ बंगले के सरकारी गमले जो बहुत बेकार हो चुके थे वो भी हम बंगले की याद के रूप में अपने साथ पास में ही बने अपने घर पर ले आये !

और उन गमलों में से ही ये पैंय्या और देवदार का बोन्साई वाला गमला भी था ! लेकिन अब ये पौधे बोन्साई नहीं रहे ! इसका कारण यह है कि, पैय्यां के इस पेड़ को आखिर घर के अहाते में रख दिया गया था , मैं, देहरादून से आया तो लगा ये पौधा इस गमले में नहीं बढ़ पा रहा है , तब पास का धानेश्वरी देवी का मंदिर नया बन गया था या नहीं मुझे ढंग से याद नहीं है पर ये शायद 2013 की आपदा से पहले की ही बात होगी ! अगर ये 2013 से पहले की बात होगी तो तब मंदिर का पुनर्निर्माण का बीड़ा आशीष ने नहीं उठाया होगा, क्यूंकि मंदिर की छत तो 1999 के भूकंप के बाद से थोडा – थोडा टपकने लगी थी, और इसके पुनर्निर्माण का कार्य केदारनाथ आपदा यानी 2013- 2014 के बाद ही शुरू किया गया ! लेकिन ये पैंया का पेड़ उससे पहले मैंने और मेरी मां ने धानेश्वरी मंदिर के बायें हाथ की तरफ- जब हम मंदिर की तरफ मुंह करते हैं तो तब बायें हाथ की तरफ और अगर मंदिर की तरफ हमारी पीठ हो तो तब दाहिने हाथ की तरफ – जहां एक बहुत बड़ा तुन (त्वेणी ) का पेड़ था जो बाद में सूख गया था और सूखे पेड़ का खतरा होने की वजह से उस पेड़ को काट दिया गया था . अब इस जगह पर तुन (त्वेणी) के सूख और सड़ गए तने के पास मेरी मां और मैंने डालडे के उस पुराने डिब्बे को जो लगभग सड़ गया था उसको कुदाल से ही फाड़ कर एक पड़ोसी बालक की मदद से उस पैंय्या के पौधे को आखिर डालडे के डिब्बे से मुक्ति दिलाकर मंदिर के बगल में रोप दिया .
जब हम पैय्यां का पेड़ लगा रहे थे मेरी मां बोल पड़ी – “चला ये बाना त तुमुं याद त रौली”, मैंने कहा तुम अभी नहीं मरने वाली, और ये बात शायद 2009-2010 की होगी मुझे सही सही ढंग से याद नहीं. जब हम पैय्यां के पौधे को लगा रहे थे वहाँ नीचे गहरी मिटटी नहीं थी , उस जगह पर काटे गए तुन के पेड़ का बुरादा खाद जैसा बन गया था ! फिर उस समय के बाद बहुत साल तक मैंने इस पैय्यां के पेड़ की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया !

अभी मां के निधन के बाद से और – आस पास बहुत सारे बंदरों की वजह से उस पैय्यां के पेड़ की तरफ ध्यान गया क्यूंकि – आजकल बन्दर मंदिर से सीधे इस पैय्यां के पेड़ पर उधम कूद मचाते रहते हैं ! छोटे छोटे बंदर – डालडे के डिब्बे में उगे उस छोटे से पैय्यां के पेड़ पर अपना आसरा बनाए रहते हैं जो अब बड़ा पेड़ बन गया है और वो पेड़ आज भी उनके लिए शरण स्थल है ! कई बार मंदिर के पवित्र झंडों को भी इस पैय्यां के पेड़ से बाँध लिया जाता है लेकिन शरारती बन्दर इन झंडों के डंडों को नीचे गिरा देते हैं ! नव वर्ष में जनवरी के बाद जब बसन्त का आगमन होता है ठीक ऐसे समय पर प्रिमुला फ्यूंली फूलने लगती है उस समय सबसे पहले पहाड़ में मेहल, कचनार जब खिलने लगते हैं ऐसे ही समय पर अब मेरी मां का लगाया ये पैय्यां भी सफ़ेद और हलके गुलाबी फूलों से भर जाता है ! आजकल बरसात का मौसम है और बरसात का लाभ लेते हुए मंदिर के बगल का पैय्यां भी तेज बारिश में झूमता नजर आता है उसकी घनी डालियों के बीच बन्दर के बच्चे अपनी मां की छाती से चिपके रहते हैं, और कई बार उंघते नजर आते हैं . आस पास के पड़ोस के बच्चे बन्दर के बच्चों को डराने का प्रयास करते और बदले में बंदरों की मां भी कई बार पड़ोसी बच्चों को डराती रहती है – ये सिलसिला जारी रहता है. अब पीपलकोटी में कई सारे बंदर हो गए हैं पहले इतने बन्दर नहीं थे सुना है हरिद्वार कुम्भ के समय गांवों में हरिद्वार – ऋषिकेश से पकड़कर बंदरों को पीपलकोटी में भी छोड़ा गया है – यही वो बन्दर हैं , जो रात को भी – मेरी मां के लगाये पैय्यां के पेड़ को शांत सोने नहीं देते.
पैय्यां का पेड़ बेहद पवित्र होता है इसकी लकड़ियों का प्रयोग हवन सामग्री में किया जाता है, इसकी टहनियों का प्रयोग – भगवत कथा , रामलीला, शादी व्याह के गेट और शादी के मंडप की सजावट में किया जाता है. इसकी सीधी सीधी टहनियों से पहाड़ में दरान्तियों के बैंड या हत्थे बनाये जाते हैं ! पीपलकोटी बाजार के परिवार होली में पैय्यां की एक दो साल पुरानी टहनी को होली की चीर के साथ होलिका दहन के लिए लिए डाक बंगले से ले जाते हैं, और पैय्यां की टहनी से ही होलिका दहन होता है ! पैय्यां के फूलों के मकरंद से पहाड़ की पहाडी मधु मक्खियाँ जिनको – इंडिका प्रजाति कहा जाता है एक विशेष प्रकार का सफ़ेद शहद बनाती हैं और पहाड़ के पैय्यां के फूलों का शहद बेहद उपयोगी माना जाता है, ये शहद महंगा भी बिकता है !
पैय्यां के पेड़ के सामान्य नाम –
• Wild Himalayan Cherry
• Hindi: पदम Padam, Padmakashtha
• Marathi: Padmaka, padmakastha, Padmakaashta
• Tamil: Patumugam
• Malayalam: Patimukam
• Telugu: Padmakla
• Kannada: Padmaka
• Khasi: Dieng kaditusoo
• Mizo: Tlaizawng, Tlaizowng
• Sanskrit: Charu, Hima, Kaidara, Kedaraja
• Nepali: पैयु Painyu
.आयुर्वेद में पैय्यां के पेड़ की छाल का प्रयोग कई प्रकार की दवाईयां बनाने में किया जाता है ! पदम् काष्ठका प्रयोग पुरातन ग्रंथों धार्मिक पुस्तकों के स्टैंड बनाने में भी किया जाता रहा है ! पैय्यां के पेड़ से निकले गोंद के पेस्ट से घुटनों और कमर के दर्द में आराम मिलता है यही नहीं पैय्यां की कच्ची छाल के पेस्ट को, हडजोड़, लाल मिटटी के साथ मिलाकर बनाये गए लेप को जानवरों के प्लास्टर में भी प्रयोग किया जाता है ! पता नहीं कितने उपयोग लेकिन आयुर्वेदिक कम्पनियां पैय्यां से आसवारिष्ट भी बनाते हैं.बहुत सारी बातें पैय्यां के पेड़ की और ना जानें कितनी यादें और स्मृतियाँ संजो कर रखी हैं भविष्य में उन पर चर्चा जारी रहेगी !
यही है मेरे जेहन में मां की वसीयत के कुछ हिस्से. बाकि काम लोगों ने कागजों के टुकड़ों पर मां के अंगूठों का निशाँ लेकर पूरा कर दिया है अपने अपने हिस्सों के स्वार्थ के लिए अपनी अपनी जमीन के लिए !
( जे पी मैठाणी )

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