जड़ों के बिना घास : विकास में जनभागीदारी 

उत्तराखंड में पंचायत चुनावों की गहमागहमी अब थम चुकी है। उम्मीद की जाती है कि अब नव-निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधि ग्रामीण विकास की गंभीर प्रक्रिया में जुटेंगे। यह प्रक्रिया सैद्धांतिक रूप से सहभागी होनी चाहिए—ग्राम सभा की भागीदारी पर आधारित, जिसमें हर वयस्क ग्रामीण की आवाज़ शामिल हो।
लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है।चुनाव के समय गांव का परिदृश्य एक मेले जैसा हो जाता है—जहाँ भोजन, शराब और वादों की भरमार होती है। प्रवासी लोग शहरों से लौटते हैं—कई बार उम्मीदवारों के खर्च पर, ताकि हर वोट सुनिश्चित हो सके। पर जैसे ही मतगणना समाप्त होती है, यह चहल-पहल गायब हो जाती है। जो लोग लंबी यात्रा करके वोट देने आए थे, वही विकास की बैठकों में दिखाई नहीं देते। विकास योजनाओं की प्रक्रिया एक औपचारिकता बन जाती है—कागज़ भरे जाते हैं, बैठकें होती हैं, लेकिन लोगों की असली भागीदारी कहीं गुम हो जाती है।
आज भी गांवों में वही पुरानी कहानी दोहराई जाती है—ऊपर से थोपे गए सरकारी योजनाएँ, जिन्हें “टॉप-डाउन अप्रोच” कहा जाता है। पंचायत प्रतिनिधि योजना निर्माण में शामिल नहीं होते, फिर भी उन्हें योजनाओं पर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं।इस व्यवस्था की जड़ें 1952 में शुरू हुए कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम (CDP) में मिलती हैं। यह एक समग्र विकास की महत्वाकांक्षी कोशिश थी, जिसने एक विस्तृत नौकरशाही तंत्र को जन्म दिया—जिला स्तर पर मुख्य विकास अधिकारी (CDO) से लेकर ब्लॉक स्तर पर ब्लॉक विकास अधिकारी (BDO) और ग्राम स्तर पर ग्राम सेवक, जिसे अब ग्राम विकास अधिकारी (VDO) कहा जाता है। लेकिन केवल पद नाम बदलने से गांवों की हालत नहीं बदली।
1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था की सिफारिश की—जिला, ब्लॉक और ग्राम स्तर पर चुने हुए प्रतिनिधियों के साथ विकास योजना में भागीदारी सुनिश्चित करने की बात की गई।फिर भी, 1980 के दशक में सरकार द्वारा कराई गई एक महत्वपूर्ण फील्ड स्टडी का नतीजा चौंकाने वाला था। इसका दस्तावेज़ 1985 में प्रकाशित हुआ: “Grass Without Roots: Rural Development Under Government Auspices”—लेखक एल. सी. जैन और अन्य। अध्ययन में पाया गया कि तीन दशकों की कोशिशों के बावजूद ग्रामीण गरीबी न केवल बनी रही, बल्कि कई मामलों में बढ़ी। यह रिपोर्ट सरकारी तंत्र की असफलता को उजागर करती है—जो जनता की ज़रूरतों को समझने और पूरा करने में अक्षम था।
73वां संविधान संशोधन (1992) इस व्यवस्था को लोकतांत्रिक और जवाबदेह बनाने का प्रयास था—नियमित चुनाव, महिलाओं और वंचित वर्गों के लिए आरक्षण, और सबसे अहम, सत्ता के विकेंद्रीकरण का प्रावधान। लेकिन जमीनी स्तर पर यह अभी भी अधूरा सपना है। कोविड-19 महामारी ने इस विफलता को और उजागर कर दिया। जब लाखों प्रवासी—जो सामाजिक सुरक्षा से कटे हुए और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में फंसे थे—अपने गांव लौटे। यह रिवर्स माइग्रेशन देश की ग्रामीण-शहरी गतिशीलता की कमजोरी का प्रतीक बन गया। उत्तराखंड सरकार ने पुनर्वास योजनाएँ घोषित कीं, लेकिन जैसे ही शहर खुले, लोग वापस लौट गए।
क्यों? क्योंकि योजना प्रक्रिया में गांवों की आवाज़ शामिल नहीं थी। क्योंकि योजनाएँ सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर अप्रासंगिक थीं। आज का ग्रामीण युवा—जो मोबाइल, सोशल मीडिया और शहरों की चमक-दमक से प्रभावित है—अब उस ‘गांव’ को नहीं चाहता जो उसके दादा-दादी ने देखा था।”ठंडो रे ठंडो, मेरा पहाड़ को पानी, ठंडी हवा” जैसी पंक्तियाँ बुजुर्गों के लिए भावुक हो सकती हैं, लेकिन यह आज की बेटी-ब्वारी को एक किलोमीटर चलकर पानी लाने के लिए प्रेरित नहीं करती। भावनाओं से मूलभूत सुविधाओं की जगह नहीं भरी जा सकती।अब समय आ गया है कि भारत सरकार, विशेषकर नीति आयोग, कुछ मूलभूत प्रश्न पूछे।
क्या हमें 1952 में बनी इस ऊपर-से-नीचे वाली मशीनरी को खत्म कर देना चाहिए?जब तक राज्य केवल प्रतीकात्मक सहभागिता से आगे नहीं बढ़ेगा—और जनता पर विश्वास नहीं करेगा—तब तक हम विकास की घास तो उगाएँगे, पर उसकी जड़ें कभी नहीं जमेंगी।
-देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी लेखक एक समाजशास्त्री हैं, जो पिछले चार दशकों से विकास क्षेत्र में कार्यरत हैं। वे जेएनयू के पूर्व छात्र हैं और उनके शोध कार्य को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन ने भी उद्धृत किया है।

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