स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न

क्या सार्वजनिक स्वास्थ्य में मानव संसाधनों की वृद्धि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार ला सकेगी?

देश में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब स्थिति को प्रायः सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में मानव संसाधनों की कमी के रूप में देखा जाता है। परंतु वास्तविक समस्या केवल कमी की नहीं, बल्कि मौजूदा स्वास्थ्यकर्मियों की कार्यकुशलता, प्रतिबद्धता तथा स्वास्थ्य सेवा वितरण में व्याप्त अवरोधों की भी है।

हाल ही में उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य के चिकित्सीय संस्थानों में नर्सिंग सीटों की संख्या बढ़ाने की घोषणा इस दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधनों की संख्या अवश्य बढ़ेगी, परंतु इससे स्वास्थ्य सेवाओं में वास्तविक सुधार होगा या नहीं, यह समय ही बताएगा। राज्य गठन के बाद डॉक्टरों तथा पैरा-चिकित्सकीय कर्मियों की संख्या में वृद्धि अवश्य हुई है, किंतु ग्रामीण एवं पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति अब भी चिंताजनक बनी हुई है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHC), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) तथा अन्य स्वास्थ्य इकाइयों में आधारभूत संरचना के सुधार की रिपोर्टें होने के बावजूद सेवा की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न बना हुआ है।

हाल ही में अल्मोड़ा जनपद के चौखुटिया ब्लॉक में खराब स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर स्थानीय लोगों द्वारा विरोध मार्च किया गया। प्रदर्शनकारियों ने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के मानकों को लागू करने की मांग की तथा स्वास्थ्य मंत्री के आवास का घेराव करने हेतु देहरादून तक मार्च करने की योजना बनाई। यह जनआंदोलन स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविक स्थिति कितनी कमजोर है।

कोविड-19 महामारी ने विश्व के विकसित देशों तक की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की सीमाओं को उजागर कर दिया। ऐसे में विकासशील देशों की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है, जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच (Accessibility), वहनीयता (Affordability) और उपलब्धता (Availability) पहले से ही सीमित हैं। महामारी ने न केवल चिकित्सा प्रौद्योगिकी की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि यह भी उजागर किया है कि वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य प्रणालियाँ किस हद तक आपात स्थितियों के प्रति तैयार हैं।

भारत की स्वास्थ्य नीतियाँ अब तक मुख्यतः “3A” — Accessibility, Affordability और Availability — पर केंद्रित रही हैं। समाधान के रूप में अधिक चिकित्सा संस्थान स्थापित कर मानव संसाधन, आधारभूत ढाँचे तथा आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने पर बल दिया गया है। परंतु अब एक वैकल्पिक रणनीति पर भी विचार किया जा सकता है — पारंपरिक विश्वविद्यालयों एवं उनसे संबद्ध शैक्षणिक संस्थानों की उपलब्ध शैक्षिक संरचना का उपयोग करके स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधनों की उपलब्धता बढ़ाई जाए।

प्रारंभिक स्तर पर नर्सिंग, फार्मेसी और पैरामेडिकल विज्ञान जैसे क्षेत्रों में पारंपरिक विश्वविद्यालयों को शामिल कर मानव संसाधन सशक्त किए जा सकते हैं। सरकारी तथा निजी क्षेत्र के वे संस्थान, जो पहले से बी.एससी., एम.एससी. और पीएच.डी. कार्यक्रम चला रहे हैं तथा जिनके पास उपयुक्त प्रयोगशालाएँ और ढाँचा उपलब्ध है, उन्हें नर्सिंग, फार्मेसी तथा पैरामेडिकल विज्ञान में प्रमाणपत्र, डिप्लोमा और डिग्री पाठ्यक्रम संचालित करने की अनुमति दी जा सकती है।

व्यावरिक प्रशिक्षण और नैदानिक कक्षाओं की व्यवस्था — जैसा कि विभिन्न परिषदों (नर्सिंग, फार्मेसी, पैरामेडिकल) द्वारा निर्धारित है — संबंधित संस्थानों द्वारा सरकारी या निजी अस्पतालों के साथ समझौता ज्ञापन (MoU) के माध्यम से की जा सकती है। उदाहरणस्वरूप, जिला अस्पताल, उप-जिला अस्पताल या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, अपने क्षेत्र के सरकारी महाविद्यालयों के साथ सहयोग कर सकते हैं, जिनके पास आवश्यक अधोसंरचना एवं संकाय सदस्य उपलब्ध हों। राज्य स्वास्थ्य निदेशालय द्वारा अंतिम स्वीकृति देने के पश्चात, विश्वविद्यालय परीक्षाएँ आयोजित कर डिग्री या डिप्लोमा प्रदान कर सकता है।

राज्य सरकार इस रणनीति को अपनाने पर विचार कर सकती है और आवश्यक नीतिगत पहल कर सकती है। किंतु यह स्पष्ट रहना चाहिए कि केवल डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल कर्मियों की संख्या बढ़ाने या उन्हें सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली में नियुक्त करने से ही स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार नहीं होगा। जब तक सेवा वितरण की बाधाओं को दूर नहीं किया जाता और स्वास्थ्यकर्मियों की कार्यस्थिति एवं सेवा शर्तों में सुधार नहीं किया जाता, तब तक अपेक्षित स्तर की स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं हो सकेंगी।

देवेन्द्र के. बुडाकोटी,लेखक समाजशास्त्री हैं और लगभग चार दशकों से विकास क्षेत्र से जुड़े हुए हैं।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *