नेपाल में भड़की ‘आग’ के पीछे अमेरिका का हाथ !

नेपाल :नेपाल में फिलहाल राजनीतिक संकट जारी है, प्रधानमंत्री केपी ओली को सिर्फ दो दिन के भीतर पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद सेना के समर्थन से सुशीला कार्की की अगुआई में अंतरिम सरकार का गठन हुआ. इस पूरी घटना के पीछे अमेरिका के गुप्त हस्तक्षेप को लेकर सवाल उठ रहे हैं. कई लोगों का मानना है कि सीधे तौर पर अमेरिका की संलिप्तता सामने नहीं आई, लेकिन मौन सहमति और समर्थन जरूर दिया गया. नेपाल में अमेरिका द्वारा अतीत में हस्तक्षेप करने की कई घटनाएं इस शक को और भी मजबूत बना रही हैं.

संडे गार्जियन की रिपोर्ट में बताया गया है कि अमेरिका ने पहले भी नेपाल को अपने गुप्त अभियानों के लिए इस्तेमाल किया है. शीत युद्ध के दौरान चीन के खिलाफ अपनी रणनीति के तहत अमेरिका ने नेपाल से खुफिया जानकारी इकट्ठा करने, दुष्प्रचार अभियान चलाने और अर्धसैनिक गतिविधियां संचालित करने का काम किया था. 1971 में राष्ट्रपति निक्सन की सीक्रेट कार्रवाई कमेटी के दस्तावेजों में इन ऑपरेशनों का खुलासा हुआ था. अमेरिका की इन गतिविधियों का उद्देश्य मुख्य रूप से चीन विरोधी गुटों को समर्थन देना था.

1960 के दशक में अमेरिका ने नेपाल में तिब्बती शरणार्थियों को हथियार और प्रशिक्षण देकर चीन विरोधी मस्टैंग गुरिल्ला बल का गठन किया था. इस बल के सदस्यों ने बाद में ‘शैडो सर्कस: द सीआईए इन तिब्बत’ नामक फिल्म में खुलासा किया कि किस तरह से अमेरिका ने उन्हें हथियार दिए और प्रशिक्षित किया. लेकिन जैसे-जैसे अमेरिका और चीन के बीच संबंध सुधरने लगे, अमेरिका ने इस बल का समर्थन छोड़ दिया, जिससे नेपाल को कूटनीतिक नतीजों का सामना करना पड़ा.

साल 2001 में अमेरिका पर हुए 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ जंग की आड़ में नेपाल में अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाया. अमेरिकी सरकार ने नेपाल में माओवादी विद्रोहियों को आतंकी घोषित कर दिया और काठमांडू को भारी सैन्य सहायता देने लगी. हजारों एम-16 राइफलें नेपाल भेजी गईं, साथ ही अमेरिकी दूतावास में एक रक्षा सहयोग कार्यालय भी स्थापित किया गया. 2005 तक अमेरिकी मदद से रॉयल नेपाल आर्मी का आकार दोगुना हो गया था.

केपी ओली की सरकार के अचानक ढहने के बाद अमेरिका की संलिप्तता को लेकर अटकलें और तेज हो गई हैं. कई वरिष्ठ पत्रकार, पुलिस अधिकारी और सेना के लोग मानते हैं कि इतनी बड़ी हलचल बिना किसी बाहरी ताकत की मदद के संभव नहीं थी.

खास बात यह है कि इस आंदोलन में कोई बड़ा नेपाली राजनीतिक चेहरा सामने नहीं आया, जिससे यह संदेह और गहराया. एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि अमेरिका हमेशा से काठमांडू में छुपकर काम करना पसंद करता रहा है, इसलिए इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ हो सकता है.

एक नेपाली अधिकारी ने यह भी कहा कि यदि नई व्यवस्था अनुमति देती है तो वे पूरी तरह से यह साबित करने के लिए सबूत इकट्ठा करेंगे कि इस साजिश के पीछे विदेशी ताकतें हैं. कई लोग मानते हैं कि यह पूरी रणनीति अमेरिका ने ही तैयार की थी, जैसा कि 1960 और 70 के दशक में होता रहा है.

अभी तक सबूतों की कमी है, लेकिन ऐतिहासिक उदाहरणों और हालिया घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि काठमांडू में सत्ता परिवर्तन की चाबी अमेरिका ने ही घुमाई है. नेपाल के इस राजनीतिक संकट ने नए सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनके जवाब आने वाले समय में ही मिल पाएंगे. फिलहाल तो यह मानना कठिन नहीं कि अमेरिका की गुप्त भूमिका इस पूरे घटनाक्रम के पीछे हो सकती है.

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