दरक रहीं उम्मीदे, टूट रहे सपने

जोशीमठ : शहर का हर बाशिंदा, चाहे वह कारोबारी हो या सामान्यजन या फिर नौकरीपेशा, बस! इसी चिंता में घुला जा रहा है। उसकी आंखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं है। जरा-सी भी अगल-बगल आहट होती है तो तन में झुरझुरी दौड़ जाती है।

नींद तो जैसे बैरी हो गई है, लाख चाहकर भी पास नहीं फटकने का नाम नहीं ले रही। मनो-मस्तिष्क में एक चक्रवात-सा उठ रहा है। कहां जाएंगे, कैसे रहेंगे, क्या दोबार छत नसीब हो पाएगी, बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा, मवेशियों को कहां ले जाएंगे।

इसी उधेड़बुन में भूख भी कोसों दूर चली गई है। अन्न का एक कौर तक मुंह में नहीं जा रहा। हालात ऐसे मोड़ पर ले आए हैं, जहां से अंधेरे के सिवा और कुछ नजर नहीं आ रहा।

समुद्रतल से 6150 फीट की ऊंचाई पर बसा चमोली जिले का चीन सीमा को जोड़ने वाला यह पहाड़ी शहर कभी थकता नहीं था। चाहे कोई भी मौसम क्यों न हो, यहां चौबीसों घंटे चहल-पहल रहती थी। बारहों महीने देश-विदेश से आने वाले यात्री, पर्यटक, ट्रैकर, घुमक्कड़ आदि इस शहर में सपनों को पंख लगाते थे।

लेकिन, आज यहां हर चेहरे की रंगत उड़ी-उड़ी सी है। जिनके घर उजड़ रहे हैं, सिर्फ उनके ही नहीं, जिनके घर अभी सुरक्षित हैं, उनके भी। जैसे-जैसे मकानों पर लाल निशान लग रहे हैं, तन-मन छलनी हुआ जा रहा है।

जीवनभर की कमाई इस तरह देखते ही देखते मिट्टी में मिल जाएगी, किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। यही वजह है कि उदासी इस शहर का स्थायी भाव बनती जा रही है। बड़े-बूढ़े, बच्चे, महिलाएं, दुकानदार, होटल व्यवसायी, सब उदास बैठे टुकर-टुकर आसमान को निहार रहे हैं।

रविग्राम निवासी हरेंद्र राणा कहते हैं, हर व्यक्ति भविष्य को लेकर आशंकित है। जिनके घर सुरक्षित हैं, वो भी। घर-परिवार में लोग हंसी-मजाक तक करना भूल गए। यहां तक कि बच्चों के चेहरे की मुस्कान भी गायब हो गई है। जो बाजार दिन-रात चहका करता था, उसमें मुर्दानगी छाई हुई है।

ऐसा लगता ही नहीं कि कभी इस बाजार में रौनक भी रही होगी। टीवी टावर बैंड निवासी रजनीश पंवार कहते हैं कि हर ओर अफरातफरी का माहौल है। लोग दौड़े जा रहे हैं बस! लेकिन, किसी को नहीं मालूम कि इसका हासिल क्या है। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता है, लेकिन रात काट खाने को दौड़ती है। कब बैठे-बैठे जमीन अपने आगोश में समा ले, कहा नहीं जा सकता।

एडवेंचर टूर से जुड़े संतोष कुंवर कहते हैं, हम एक डरे हुए शहर में रह रहे हैं। डरा हुए आदमी को कुछ नहीं सूझता। भोर होते ही लोग तहसील की ओर दौड़ पड़ते हैं, इस उम्मीद में कि शायद कोई रोशनी की किरण नजर आ जाए। लेकिन, ऐसा अब संभव नहीं है।

एक खुशहाल शहर को उजड़ते हुए देखना हमारे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। पर्यटन कारोबार से जुड़े अजय भट्ट कहते हैं कि सब-कुछ चौपट हो गया। पता नहीं, इस खुशहाली को किसकी नजर लग गई है। मुझे नहीं लगता कि इस अंतहीन पीड़ा से कभी निजात मिल पाएगी।

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