चैत्र कृष्ण अमावस्या पर बन रहा 21वीं सदी का दुर्लभ योग

हरिद्वार। शास्त्रों में इसे ‘मोक्षदायिनी’ अमावस्या और ‘अश्वत्थ प्रदक्षिणा’ व्रत की भी संज्ञा दी गई है। इस दिन पवित्र नदियों, विशेषकर गंगा में स्नान का विशेष महत्व माना गया है। इस बार कुंभकाल में 12 अप्रैल को पड़ने वाली चैत्र कृष्ण अमावस्या पर हरिद्वार कुंभ का पहला शाही स्नान भी हो रहा है। खास बात यह कि कोरोना काल इस अमावस्या पर सभी तेरह अखाड़े हरकी पैड़ी स्थित ब्रह्मकुंड में डुबकी लगाएंगे।

महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर को चैत्र कृष्ण अमावस्या का महत्व समझाते हुए भीष्म कहते हैं, ‘इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य स्वस्थ, समृद्ध और सभी दुखों से मुक्त होगा।’ ऐसी भी धारणा है कि स्नान करने से पितरों की आत्माओं को शांति मिलती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वर्ष 2021 में सिर्फ एक ही सोमवती अमावस्या पड़ रही है। इस दिन दान का भी अत्याधिक महत्व माना गया है। कहते हैं कि इस दिन दान करने से घर-परिवार में सुख-समृद्धि का वास होता है। ज्योतिषाचार्य डॉ. सुशांत राज कहते हैं कि इस बार अमावस्या तिथि 11 अप्रैल रविवार को सुबह छह बजकर तीन मिनट से शुरू होकर सोमवार सुबह आठ बजे तक रहेगी।

 

शास्त्रों में उदय काल यानी सूर्योदय के दौरान पड़ने वाली तिथि का विशेष महत्व बताया गया है, इसलिए सोमवती अमावस्या का संयोग बन रहा है। अमावस्या जब भी दो दिन पड़ती है, तब पहले दिन श्रद्धादि अमावस्या और दूसरे दिन स्नान-दान की अमावस्या मनाई जाती है। इसलिए 11 अप्रैल चैत्र श्रद्धादि की अमावस्या है और 12 अप्रैल को स्नान-दान की। वह कहते हैं कि यह स्नान कोरोना काल में हो रहा है, इसलिए आस्था के आवेग में हमें कोविड गाइडलाइन की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

चैत्र कृष्ण अमावस्या को शास्त्र अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत के रूप में मान्यता देते हैं। अश्वत्थ पीपल के वृक्ष को कहते हैं, जिसमें भगवान शिव व माता पार्वती का वास माना गया गया है। लिहाजा, सुहागिनें इस दिन परिवार की सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखकर पीपल के रूप में शिव-पार्वती की ही परिक्रमा करती हैं। अन्य मान्यता के अनुसार पीपल के मूल में भगवान विष्णु, तने में शिव और अग्रभाग में ब्रह्मा जी का वास माना गया है।

कहते हैं कि सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या को भंवरी (परिक्रमा करना) देता है, उसे सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वैसे देखा जाए तो पीपल, तुलसी आदि पेड़-पौधों को देवतुल्य मानने के पीछे कहीं न कहीं पर्यावरण संरक्षण का भाव ही निहित है।

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