उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक रूप से आजीविका का मुख्य आधार आत्मनिर्भर कृषि रहा है, जिसे वानिकी और पशुपालन से सहारा मिलता रहा। आज़ादी के बाद बड़ी संख्या में लोग सेना, अर्धसैनिक बलों, राज्य पुलिस बलों तथा प्रशासनिक तंत्र के निचले पदों पर कार्यरत रहे। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, प्राथमिक क्षेत्र (agriculture-based economy) इन परिवारों का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहा और लोगों ने देशभर में औद्योगिक क्षेत्र (secondary sector) में रोजगार तलाशना शुरू कर दिया।
1970 के दशक तक एक बड़ा वर्ग गांवों से बाहर बसने लगा, बेहतर सुविधाओं और जीवनशैली की तलाश में। जब पहाड़ों में न तो कृषि का विकास हुआ और न ही कोई औद्योगिक ढांचा खड़ा हो पाया, तब लोगों ने स्थायी रूप से तराई, मैदानों और राज्य से बाहर के शहरों में बसने की योजना बनाई। 1970 के दशक में अर्थशास्त्रियों ने उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ‘मनी ऑर्डर इकोनॉमी’ कहा। बाद में जब लोग बाहर ही बसने लगे और पेंशन पर निर्भर हो गए, तो मैंने इसे ‘पेंशन इकोनॉमी’ कहा। आज स्थिति यह है कि कई गाँव ‘भूतिया गाँव’ बन चुके हैं, जहाँ पेंशनभोगी भी लौटना नहीं चाहते।
जब प्राथमिक क्षेत्र टिकाऊ नहीं रहा और द्वितीय तथा तृतीय क्षेत्र कभी शुरू ही नहीं हो पाए, तो राज्य का विकास ठहर गया। 1970 के दशक में जो पलायन शुरू हुआ था, वह आज और भी बढ़ गया है। “पुश और पुल फैक्टर“ लगातार लोगों को बाहर ले जा रहे हैं। आज आवश्यकता है “चकबंदी“ यानी भूमि समेकन की, जिससे समग्र विकास कार्यों की शुरुआत हो सके।
आज की स्थिति यह है कि पुलिस कांस्टेबल या चपरासी की नौकरियों के लिए भी आवेदन करने वालों में डिग्रीधारी, इंजीनियर, एमबीए और पीएचडी धारक तक शामिल हैं। यह दर्शाता है कि निजी क्षेत्र और कॉर्पोरेट जगत, सरकारी नौकरियों जैसी सुरक्षा, वेतन, सुविधाएं और पेंशन नहीं दे पाए हैं। क्या यह सब राज्य की नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों की विफलता का परिणाम नहीं है?केंद्र स्तर पर भी, हमारे शिक्षा नियोजनकर्ताओं ने पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री को रोजगार और आजीविका से जोड़ने की दिशा में कभी गंभीर योजना नहीं बनाई। शिक्षा और रोजगार के बीच का यह अंतराल आज और भी गहरा हो गया है।
मेरी 87 वर्षीय माँ कहती हैं कि जब से उन्होंने होश संभाला है, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी की बातें सुनती आई हैं — और यह भी कि पहले चीजें बहुत सस्ती हुआ करती थीं। आज भी यही मुद्दे बने हुए हैं। “युगवाणी“ पत्रिका में छपे एक लेख में समाजसेवी बच्ची सिंह बिष्ट लिखते हैं कि महिलाओं ने परंपरागत कृषि प्रणाली की रीढ़ की हड्डी बनकर काम किया है, लेकिन अब वे अपने अनुभवों से सीखकर बेटियों को पढ़ने, नौकरी करने, और ऐसे जीवनसाथी चुनने के लिए प्रेरित कर रही हैं जो सरकारी या स्थायी नौकरी में हों — ताकि उन्हें वही मेहनत और पीड़ा न सहनी पड़े जो उनकी माँओं ने झेली। गांवों का खाली होना, एक प्रकार से महिला सशक्तिकरण का संकेत भी है।
ग्रामीण विकास में पंचायतों की मज़बूत भागीदारी के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का सीधा चुनाव जनता करे— इससे भारतीय लोकतंत्र में विकेंद्रीकरण और जनसहभागिता को बढ़ावा मिलेगा। अब समय आ गया है कि आधिकारिक ढांचे को पुनर्विचार के दायरे में लाया जाए और वास्तविक शक्ति पंचायत राज संस्थाओं को सौंपी जाए।उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में अब तक जितने भी ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाए गए हैं, वे आजीविका के टिकाऊ साधन देने में असफल रहे हैं। मेरा मोटा अनुमान है कि कोविड के दौरान गांव लौटे 95% से अधिक लोग अब फिर शहरों की ओर लौट चुके हैं। यह दर्शाता है कि या तो योजनाओं की डिज़ाइन गलत थी, या क्रियान्वयन में भारी गड़बड़ियाँ थीं।
शहरी जीवनशैली के अभ्यस्त परिवार गाँव में टिक नहीं पाए। “ठंडु रे ठंडु, मेरा पहाड़ की हवा ठंडु पानी” जैसे गीत उनकी सोच नहीं बदल सके। और अब तो लोग कहते हैं — “मुझे पहाड़ी–पहाड़ी मत बोलो जी।” जब राज्य के विधायक भी गैरसैंण में शीतकालीन सत्र नहीं करना चाहते, तो यह भी एक स्पष्ट संकेत है कि पहाड़ों में बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं की कितनी कमी है।रिवर्स माइग्रेशन (वापसी) की राह अब भी बहुत लंबी और कठिन है।
– देवेंद्र कुमार बुडाकोटी,लेखक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनकी शोध को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन की पुस्तकों में उद्धृत किया गया है।

