भारतीय पारिवारिक संरचना पर संकट

उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य के हर ज़िले में वृद्धाश्रम खोलने की हालिया घोषणा ने मुझे, एक समाजशास्त्री के रूप में, यह सोचने पर विवश किया कि क्या वास्तव में पहाड़ी समाज को वृद्धाश्रमों की आवश्यकता है? खासकर तब जब यहां परिवार का अर्थ केवल माता-पिता और बच्चों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक विस्तृत रिश्तों की जड़ से जुड़ी व्यवस्था है।यदि सरकार वाकई बुजुर्गों के हित में काम करना चाहती है, तो वह नागरिक समाज संगठनों को वृद्धाश्रमों की स्थापना के लिए प्रोत्साहित कर सकती है और उनके संचालन में सहायता कर सकती है। अधिकांश बुजुर्ग जो वृद्धाश्रमों में रहते हैं, वे आर्थिक और मानसिक रूप से सक्षम होते हैं और निजी संस्थानों द्वारा दी जा रही सेवाओं का लाभ उठा सकते हैं। सरकार को वृद्धाश्रम नहीं, बल्कि निराश्रितों के लिए आश्रय गृह स्थापित करने चाहिए।
सार्वजनिक नीति अक्सर तब बनती है जब नागरिक समाज किसी मुद्दे को लंबे समय तक उठाता है और उसे जनचर्चा का विषय बनाता है। निराश्रितों, विकलांगों या पीड़ित महिलाओं के लिए आश्रय गृह समझ में आते हैं, लेकिन मानसिक और आर्थिक रूप से सक्षम बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम एक अस्वाभाविक कदम प्रतीत होता है, खासकर भारतीय समाज की पारिवारिक परंपराओं को देखते हुए।भारतीय पारिवारिक व्यवस्था गहराई से जुड़ी हुई है, और यही इसकी सामाजिक स्थिरता का आधार है। पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय परिवारों को ग्राम समुदाय, संयुक्त परिवार, विस्तारित परिवार और आधुनिक काल में विकसित हुए एकल (न्यूक्लियर) परिवार के रूप में वर्गीकृत किया है। किंतु भारत में, चाहे परिवार किसी भी प्रकार का हो, बुजुर्ग सदस्यों को अक्सर परिवार का अभिन्न हिस्सा माना जाता है।
एक उदाहरण देखें—जब किसी बेटी की विदाई विवाह के बाद होती है, तो केवल उसके माता-पिता ही नहीं, बल्कि पूरे गांव और मोहल्ले के लोग भावुक होकर रो पड़ते हैं। यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि भावनात्मक और पारिवारिक संबंधों की गहराई को दर्शाता है।भारत में रिश्तों की एक जटिल और मजबूत प्रणाली है, जहां बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना संतानें करती हैं। यदि कहीं किसी बुजुर्ग की उपेक्षा या दुर्व्यवहार होता है, तो वह खबर बनती है और स्थानीय प्रशासन सक्रिय हो जाता है।
पश्चिमी समाजों में अधिकतर परिवार एकल होते हैं, और वहां वृद्धाश्रम जाना एक सामान्य बात है। वे शायद यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई बेटा अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चों के साथ-साथ अपने चाचा (जिनके अपने सफल बेटे और बहुएं हैं) को भी साथ रखे। लेकिन भारत में यह सामान्य है।यहां परिवार सिर्फ खून के रिश्तों तक सीमित नहीं है। पड़ोसी भी रिश्तेदार बन जाते हैं। राखी भाई, राखी बहन, भाभी, भाई साहब जैसे संबोधन केवल सामाजिक शिष्टाचार नहीं, बल्कि भावनात्मक संबंध हैं। यहां तक कि दोस्तों के जीवनसाथी भी परिवार का हिस्सा बन जाते हैं। विवाह का अधिकांश हिस्सा आज भी पारंपरिक रूप से तय होता है, जिससे रिश्तों की यह श्रृंखला बनी रहती है।
औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और शिक्षा या रोजगार के लिए पलायन ने एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि की है। यही कारण है कि शहरी क्षेत्रों में वृद्धाश्रम उभरने लगे हैं। लेकिन पारिवारिक मूल्यों की जड़ें अब भी गहरी हैं। कई परिवार भले ही भौगोलिक रूप से अलग रहते हों, लेकिन भावनात्मक रूप से वे जुड़े रहते हैं।एक ऐसा समाज जो अपने बुजुर्गों की देखभाल नहीं कर सकता, धीरे-धीरे नैतिक और सामाजिक पतन की ओर बढ़ता है। यदि हम केवल संस्थागत सुविधा को अपनाते हुए भावनात्मक जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेंगे, तो हम एक दिशाहीन और विघटित समाज की ओर अग्रसर होंगे।
– देवेंद्र के. बुडाकोटी
 लेखक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में कार्यरत हैं।

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