जाने कहां खो गयी घुघूती की घूर्र- घूर्र

ना बासा घुघूती चैत की
खुद लगीं च मैत की ।‌
* जाने कहां खो गयी घुघूती की घूर्र- घूर्र —
अब सिर्फ गीतों में ही सुनाई देती है ।
जाने क्यों नहीं लगती अब नहीं किसी को चैत में मां बबा की खुद( नरही ) ।
नहीं लगती है हृदय से उभरी और गले से हुंचुक कर आती “बाडुली” ।

पहाड़ के गांवों में चैत के महीने में विवाहिता बिटिया , बहिन , फूफू ( बुआ ) को उनके ससुराल में मायके से मां के हाथों से स्नेह आत्मीयता से बने चावल से बना हलवा , ( कल्यो ) आरसे , रोट , खाजा बुखणें को मालू के पत्तों में लपेट कर और भेंकल की रस्सी से बंधे ब्यंजनों को पिठठू में भर कर बबा जी ( पिता ) भैजी , भुला लाते थे।

तो बिटिया , बहिन की आंखों में अजीब सी चमक आ जाती थी ।
वह ससुराल में चाहे कितनी भी सम्पन्नता से रहती है। पर उसे चैत ( चैत्र ) के महीने में अपने मायके से भेंटुली , कलेवा की प्रतीक्षा रहती थी। और जब चैत के महीने में उसके मायके से बबा जी , भेजी , भुला आत्मीयता से लाये गये भेंटुली , कलेवा , उपहार के साथ उसके ससुराल के आंगन में आते , घर आते। तो मारे खुशी के बिटिया , बहिन की आंखें छलक जाती है । उसकी आंखों में अजीब सी चमक आ जाती थी । वह बबा जी , भाई , भुला के गले लग जाती।

यह आत्मीय क्षण ऐसा होता था कि हजारों , लाखों शब्द भी इस स्नेहिलता के आगे बौने हो जाते थे।और शाम को जब बेटी मायके से आये और मां के हाथों से बने ब्यंजनों को खातीं। तो एक एक दाने में उसे दुनिया के सबसे महंगें से मंहगे ब्यंजनों का स्वाद लगता था। या दुनिया के मंहगे से महंगे ब्यंजनों का स्वाद भी उसे मायके आये चैत की भेंटुली कलेवा के आगे फीके लगते । हर विवाहित बेटियों , बहिन ( ध्याणी ) को चैत के महीने में मैत से आयी भेंटुली कलेवा भगवान के प्रसाद से कम नहीं लगते।

चैत के महीने में मां के द्वारा बनाये और बबा जी, भेजी भुला द्वारा लाये भेंटुली कलेवा को जब बिटिया बहिन अपने आस पड़ोस में बांटती। तो बड़ी ठसक के साथ इतरा कर कहती कि मां ने भेजा है बबा जी , भाई लेकर आये।
अपने ससुराल वह मां की नन्ही बिटिया बन जाती थी। उस समय अपने ससुराल में। और ठुमुक ठुमुक कर सबको कहतीं ! ” देखो मेरे मैत से मां ने यह भेजा है।

जिन बिटिया , बहिन के मायके से चैत का कलेवा , भेंटुली नहीं आती। तो वह बेटी , बहिन टप टप आंसू बहाती । सोचती काश मेरे मायके से मैत से चैत में कोई भेंटुली , कलेवा लेकर आता।चैत के महीने में बिटिया बहिन की ससुराल में मायके से भेंटुली कलेवा , उपहार आत्मीयता की स्नेह की परम्परा ही नहीं।

इसके पीछे एक दर्द भरा स्नेह भी होता था। चैत के महीने प्रकृति में कुछ उपज नहीं होती है। घरों में रखा अन्न भी वर्ष भर में उपयोग होने पर समाप्ति की ओर होता था । ऐसे में कहीं बिटिया , बहिन चैत के महीने में भूखे पेट तो न रह जाय ! इस भाव से भी मायके से बबा जी , भेजी भुला भेंटुली कलेवा लेकर उसके ससुराल आते।

खैर अब सुखद स्थिति यह कि अब अभाव और दर्द की वह स्थिति नहीं है। हर ससुराल में बिटिया बहिन बहुत सम्पन्नता में अगर ना भी हो। पर विपिन्नता में भी नहीं है।पर आज भी पहाड़ की हर बेटी , बहिन को चैत के महीने में अपने मायके से भेंटुली चैत के कल्यो का इंतजार रहता है। चाहे वह ससुराल में कितनी सम्पन्न क्यों न हो ।

कुमायू में और गढ़वाल के कुछ इलाकों में चैत की भेंटुली कल्यो कलेवा के साथ साथ मायके से वस्त्र भी उपहार में बेटी बहिन को दिये जाते हैं ।वक्त बदल रहा है। अब चैत की भेंटुली , कल्यो में आरसे , रोट , कलेवा , बुखणा के स्थान पर बाजार के लड्डू भी बिटिया बहिन की ससुराल में लेकर बड़ा जी , भेजी , भुला लेकर जा रहे हैं। पर इसमें बुराई भी नहीं। बदलते दौर में यह मीठा स्नेह और चैत के महीने की भेंटुली कल्यो उपहार भी परम्परा का निर्वहन नहीं.

बल्कि बेटी , बहिन के स्नेह की डोर मायके से सदैव बनी रहे । इसके लिए आत्मीयता जीवित है।हमारे पहाड़ में बेटी , बहिन का मायके और मायके से भेंट उपहार का क्या मूल्य है ! क्या आत्मीयता है ! इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जाता है कि मां गौरा , मां नन्दा जो त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर की अर्धांगिनी हैं।

उन्हे भी अपने मैत मायके से मिली चूड़ी बिंदी , काखड़ी , मुंगरी खाजा बुखणा की प्रतीक्षा रहती है ।हो सकता है कुछ लोगों , बिटिया बहिनों को मेरी यह बात गरीब की , गांव की थकी बात लगे। परम्परा लगे।आधुनिक और स्वयं को मार्डन युग , प्रगतिशील होने समझने वालों को चैत की भेंटुली कल्यो उपहार बासी बात लगे।
पर जाने जिकुडी ( हृदय ) से बात आती है.

कि घुघूती घुराण लगी मेरा मैत की । बोडी बोड़ी ऐगी ऋतु चैत की ।
यह जिक्र इस लिए कि 8 – 10 साल पहले जापान से कुछ बालिकाओं का एक ग्रुप गोपेश्वर आया। सभी बहुत सम्पन्न और ऐरोस्क्रेट परिवारों की थीं। समय यही चैत्र का रहा होगा। उनके स्टेडी टुअर का विषय ग्राउंड कल्चर आफ उत्तराखंड था । जब यहां आकर उन्होंने ने चैत्र माह की भेंटुली और चैत के कलेवा कल्चर को देखा । तो भावुक हो गयीं। उनमें एक बालिका विस्तसिको नारामुका थी।

वह हमारे परिवार से ऐसी जुड़ी कि आज भी चैत का महीना आते ही जापान से पूछती हैं। कि हमें क्या उपहार भेज रहे हैं।चैत की भेंटुली और कलेवा पर बहुत सी बातें पहाड़ , गांव घर और लोगों के स्नेह पूर्ण हृदय में है। इसका जिक्र आगे फिर कभी ।

प्रस्तुतिः क्रांति भट्ठ वरिष्ठ पत्रकार की फेसबुक वाल से साभार

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