चांद पर मानव बस्ती !

उदय दिनमान डेस्कः अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का अपोलो-11 मिशन था, जिसके जरिये अमेरिका ने इंसानों को पहली बार चंद्रमा पर उतारा था। इस तरह तत्कालीन सोवियत संघ को पछाड़ते हुए अमेरिका ने खुद को अंतरिक्ष और धरती, दोनों जगह महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में सफलता हासिल की थी।

अपोलो-11 मिशन के बाद वर्ष 1972 में अपोलो-17 से गए अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों ने (अब से पहले) आखिरी बार चंद्रमा की यात्रा की थी। हालांकि इन बीते पांच दशकों से ज्यादा समय में चांद को छूने की ललक भारत समेत कई और देशों में जगी है,

लेकिन चांद पर दोबारा पदार्पण करने का ख्वाब फिलहाल अमेरिका ही देख रहा है, जिसने इस संबंध में अपने नए मिशन आर्टेमिस-1 की शुरुआत कर दी है। इस कड़ी में वह आनेवाले दिनों में चंद्रमा पर बारी-बारी से और पांच मिशन भेजेगा।

अपोलो अभियानों से अलग आर्टेमिस मिशन का उद्देश्य अमेरिका को महाशक्ति साबित करने के मुकाबले अंतरिक्ष अनुसंधान की यात्रा को आगे बढ़ाना ज्यादा है। फिर भी दुनिया यह जरूर जानना चाहती है कि जिस चंद्रमा की सतह को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री छू चुके हैं,

दूसरे देशों के अभियान चंद्रमा की सतह की गहरी पड़ताल कर चुके हैं, उस चंद्रमा पर दोबारा जाकर अमेरिका आखिर क्या हासिल करना चाहता है? नासा के प्रशासक बिल नेल्सन के अनुसार इंसान के फिर से चांद पर कदम रखने की यात्रा आर्टेमिस-1 के साथ शुरू हो गई है। इसका अभिप्राय यह है कि चांद पर इंसान के दोबारा कदम पड़ने जा रहे हैं।

बताया जा रहा है कि मंगल ग्रह के अनुसंधान की दिशा में चंद्रमा पर बस्ती बसाना महत्वपूर्ण है। असल में मंगल की ओर लंबे सफर के दौरान अंतरिक्ष यात्री चांद की सतह को एक पड़ाव और रीलांच के एक ठिकाने के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं।

इसके अलावा नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) का यह साझा मिशन इसका आकलन भी करने में मददगार साबित होगा कि पिछली आधी सदी में अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में क्या कुछ बदला है?

यह आकलन बहुत महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि 1972 में अंतिम बार चंद्रमा पर इंसान के उतरने के 50 बाद सिर्फ तकनीकी और वैज्ञानिक सोच में ही बदलाव नहीं आया है, बल्कि चांद को देखने के हमारे नजरिये और सपनों में भी बड़ा परिवर्तन आ चुका है। हो सकता है कि अब इसकी शुरुआत इससे हो कि चंद्रमा पर यात्री आरंभ में एकाध हफ्ते के लिए भेजे जाएं।

फिर वहां कुछ पर्यटकों को ले जाया जाए, लेकिन आगे चलकर चंद्रमा पर ले जाए गए लोगों को एक-दो महीने तक टिकाए रखने की योजना आर्टेमिस के मिशनों में शामिल है। एक बदलाव यह नजर आ सकता है कि पहली बार कोई महिला और अश्वेत नागरिक चंद्रमा की धरती पर पांव रखें।

यूनानी मिथकों के अनुसार चंद्रमा की देवी और अपोलो की जुड़वां बहन-आर्टेमिस के नाम से संचालित नासा के इस मिशन की आरंभिक उड़ानें मानवरहित होंगी। जैसे आर्टेमिस-1 एक सुरक्षा जांच मिशन है,

तैयारी, लांचिंग और पृथ्वी पर यान की वापसी संबंधी समस्त तकनीकी पहलुओं और अड़चनों को जांचना है। यह जांच-परख कितनी बारीकी से की जा रही है, इसका अंदाजा इससे लगता है कि इस साल अगस्त और सितंबर में इसकी लांचिंग को दो बार टाल दिया गया था।

सुरक्षा संबंधी जांच पूरी होने पर अगले पांच आर्टेमिस अभियान क्रमशः वर्ष 2028 तक लांच किए जाएंगे। इसके अगले चरणों में अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा की परिक्रमा करेंगे और उसकी सतह पर उतरेंगे। आर्टेमिस-1 से चंद्रमा की ओर भेजे गए यान (पेलोड) का नाम ओरियन है।

यह मानवरहित यान चंद्रमा की दूरस्थ कक्षा में कुछ दिन बिताने और चंद्रमा की एक या दो परिक्रमा करने के बाद पृथ्वी पर (प्रशांत महासागर में) वापस लाया जाएगा। ओरियन अंतरिक्ष यान की खास बात यह है कि यह दोबारा इस्तेमाल होने वाला यान है।

इस मौजूदा मिशन में हेल्गा और जोहर नामक दो पुतले भी भेजे गए हैं, जो विकिरण मापने वाले सेंसर से लैस हैं। योजना के मुताबिक आर्टेमिस-1 मिशन भी अपोलो-11 की तरह एक हफ्ते की अवधि वाला है, लेकिन वैज्ञानिक गतिविधियों की संख्या की तुलना में यह अभियान अपोलो-11 से काफी बड़ा है।

अपोलो अभियानों से यह मिशन इस मायने में भी अलग हैं कि इस बार अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा की भूमध्य रेखा के बजाय इसके दक्षिणी ध्रुव पर उतरेंगे, जो अभी तक इंसान के कदमों की छाप के मामले में अनछुआ है।

अपोलो अभियानों और आर्टेमिस मिशनों के बीच अगर सबसे ज्यादा कुछ बदला है तो वह चंद्रमा को लेकर विज्ञानियों की अवधारणाएं हैं। इसमें सबसे अहम यह है कि अपोलो अभियानों के समय नासा के अंतरिक्ष यात्रियों समेत विज्ञान बिरादरी और पूरी दुनिया को लगता था कि चंद्रमा की सतह बिल्कुल सूखी है,

लेकिन अब सभी को पता है कि कम से कम चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भारी मात्रा में बर्फ और भाप के रूप में पानी मौजूद है। इसके अलावा मंगल ग्रह और सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी अब चंद्रमा को सर्वाधिक संभावना वाले अंतरिक्ष पिंड के रूप में देखा जाने लगा है।

उल्लेखनीय है कि आर्टेमिस मिशनों का लक्ष्य मंगल ग्रह पर बस्तियां बसाना है, लेकिन इसकी शुरुआत चंद्रमा पर पहला लैंडिंग पैड या कहें कि बेस कैंप बनाने से होगी। यह बेस कैंप इस दशक के आखिर तक बना लिए जाने की योजना है।

दावा है कि चंद्रमा का यह बेस कैंप किसी अभियान को दो महीने तक मदद देने और चांद पर स्थितियों को जीवनयोग्य बनाने की एक चौकी की तरह काम कर सकेगा। हालांकि ऐसे प्रयास सिर्फ अमेरिकी स्पेस एजेंसी और यूरोपीय स्पेस एजेंसी ही नहीं कर रही हैं।

चीन के राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन और रूसी संघीय अंतरिक्ष एजेंसी-रोस्कोसमोस ने भी साझा तौर पर 2030 के शुरुआती वर्षों में चंद्रमा पर एक बेस कैंप बनाने का प्रस्ताव दिया है। इस बेस कैंप का नाम अंतरराष्ट्रीय चंद्र शोध स्टेशन रखे जाने की योजना है।

नासा या चीनी-रूसी सहयोग से बनने वाले मून बेस कैंप का असली फायदा यह होगा कि वहां मंगल समेत अन्य ग्रहों पर जाने-रहने के लिए जरूरी तकनीक और प्रणालियों की टेस्टिंग की जा सकेगी। साथ ही परीक्षण में सफल होने पर वहां से वे तकनीकें पृथ्वी के मुकाबले कम समय में मंगल या आगे ले जाई जा सकेंगी।

अगर इंसानी बस्तियां नहीं बस सकीं तो भी चंद्रमा पर ऐसे उपकरण लगाए जा सकते हैं, जो सुदूर अंतरिक्ष की टोह लेने में हमारी मदद कर सकते हैं। साथ ही वहां मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाले हाइड्रोजन का इस्तेमाल दूसरे ग्रहों को जाने वाले राकेटों के ईंधन के रूप में किया जा सकता है। असल में पृथ्वी से प्रक्षेपित किए जाने वाले राकेटों की अधिकतम ऊर्जा इस ग्रह के वायुमंडल और गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने में ही खर्च हो जाती है।

ऐसे में चंद्रमा के रीफ्यूलिंग स्टेशन हमारे यानों के राकेटों को सौरमंडल के ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचाने लायक ईंधन दे सके तो यह करिश्मा अंतरिक्ष के हमारे अब तक के प्रेक्षणों को बदलने का चमत्कार कर सकता है। ऐसे में चंद्रमा पर साकार होने वाला बेस कैंप भावी अंतरिक्ष अभियानों की सफलता की अहम जरूरत बन सकता है।

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