भारतीय समाज में ‘प्राइवेसी’ एक अजनबी विचार !

“मुझे कनाडा की बर्फ से ज़्यादा बंबई की झोपड़पट्टियाँ पसंद हैं,” एक बुज़ुर्ग भारतीय ने विदेश से लौटने पर अपने दोस्त से कहा। इस बात का राष्ट्रवाद या देशभक्ति से ज़्यादा संबंध नहीं था—बल्कि यह उनके अपने देश, लोगों और जीवनशैली से गहरे भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता था। उनके लिए बंबई की झोपड़पट्टियाँ अपनापन, सहयोग और एकजुटता का प्रतीक थीं। जबकि उनके भाई-बहन कनाडा में रहते थे, वहां वह खुद को अकेला महसूस करते थे—पड़ोसियों की बातचीत, खुले दरवाजों और अनकहे सामूहिक जुड़ाव की कमी उन्हें खलती थी।

पश्चिमी समाजों में प्राइवेसी और व्यक्तिगत स्पेस को बहुत अहमियत दी जाती है—यह कानूनी रूप से सुरक्षित और सामाजिक रूप से सम्मानित होती है। किसी की निजी सीमाओं में घुसना वहां असम्मान माना जाता है। इसके विपरीत, भारतीय समाज में प्राइवेसी को उतना महत्व नहीं दिया जाता। इसका कारण हमारे सामाजिक ढांचे—विशेषकर परिवार, रिश्तेदारी और विवाह की अवधारणाओं—में छिपा है।

भारतीय परिवार अक्सर एकजुट इकाई की तरह काम करते हैं। आज भी अधिकांश शादियाँ तय होती हैं, और प्रेम-विवाहों में भी अक्सर परिवार ही आयोजक की भूमिका निभाते हैं। हमारे समाज में विवाह दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का सामाजिक अनुबंध होता है। इसलिए लड़का या लड़की के बारे में औपचारिक और अनौपचारिक पृष्ठभूमि जांच सामान्य बात है। शहरों में तो जासूस या एजेंसियाँ तक रखी जाती हैं, और गाँवों-छोटे कस्बों में रिश्तेदारों और परिचितों का नेटवर्क यह काम करता है।

जब इस तरह की जाँच-पड़ताल सामान्य मानी जाती है, तो व्यक्तिगत प्राइवेसी की कल्पना कैसे की जा सकती है? यहां निजी मामलों में दखल को न केवल स्वीकार किया जाता है, बल्कि अपेक्षित भी माना जाता है। “यह तुम्हारा नहीं है मामला” जैसी बात हमारी सांस्कृतिक सोच में फिट नहीं बैठती।विवाह समारोह भी इसी सामाजिक जुड़ाव को दर्शाते हैं। दुल्हन की विदाई केवल पारिवारिक नहीं, सामुदायिक घटना होती है। कई गाँवों में पूरी बस्ती रोती है। दुल्हन, माँ, रिश्तेदार—यहां तक कि देखने वाले भी भावनाओं से भर जाते हैं।

मेरे पिता के समय, दूल्हा-दुल्हन की पहली मुलाक़ात शादी के मंडप पर होती थी। जोड़ी मिलाने में कुंडली का सबसे बड़ा हाथ होता था। तलाक़ उस समय बहुत दुर्लभ था—क्योंकि न केवल यह कानूनी रूप से जटिल था, बल्कि सामाजिक रूप से भी इसे कलंक माना जाता था। कई भारतीय भाषाओं में “तलाक” के लिए उपयुक्त शब्द तक नहीं है।हालाँकि अब समाज बदल रहा है—खासकर शहरी क्षेत्रों में—फिर भी भारत में तलाक की दर 2025 में केवल 1% से 1.3% के बीच है। महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता, करियर प्राथमिकताएँ और बदलती जीवनशैली ने तलाक़ के मामलों में वृद्धि की है, लेकिन वैश्विक मानकों की तुलना में यह अभी भी कम है।

पुरानी पीढ़ी के लिए यह नया व्यक्तिगतता और प्राइवेसी का दौर अजनबी सा है। जब मेरी माँ अपने बेटे के पास विदेश गईं, तो शुरुआत में उन्हें साफ-सुथरी सड़कें और आधुनिकता पसंद आई। पर कुछ ही समय में उन्होंने खुद को अकेला पाया—ना कोई पड़ोसी मिलने आता था, ना ही पोते-पोतियों के पास समय था। लौटने पर उन्होंने कहा: “वहां सब कुछ है, पर बात करने वाला कोई नहीं!”

विदेशों में बसे भारतीय भी, नई जगहों में रहते हुए, अपनी परंपराओं से जुड़े रहते हैं। उनके त्योहार, संगीत, नृत्य, पूजा-पाठ—सभी उन्हें भारतीय संस्कृति से जोड़े रखते हैं। नई पीढ़ी भले ही प्राइवेसी पसंद करे, पर बुज़ुर्गों के लिए यह दूरी तकलीफ़देह होती है। आधुनिकता के बावजूद, भारतीय परिवार आज भी एक किला है—जिसे बचाना और बनाए रखना जरूरी समझा जाता है।इसीलिए भारत केवल एक देश नहीं, एक सभ्यता है—जहां मूल्य सामूहिकता में रचे-बसे हैं, और व्यक्तिगत सीमाओं के लिए बहुत कम जगह है।

लेखक परिचय:
देवेंद्र कुमार बुडाकोटी एक समाजशास्त्री हैं और विकास क्षेत्र में उनका गहरा अनुभव है।

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