हकीकतः देवलोक हिमालय में इंसानी दखल, मौत को आमंत्रण

संतोष ‘सप्ताशु’
देहरादून। हिंदू धर्म के अनुसार भगवान शिव हिमालय में सदियों से तपस्यारत हैं और उन्हें तपस्या में खलल नहीं चाहिए। यह हमारे पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि जब-जब भगवान शंकर की तपस्या को भंग करने की कोशिश की गयी, तब-तब शिव ने तांडव मचाया।  कहते हैं कि “हिमालयानाम् नगाधिराजः पर्वतः” कहने का आशय है कि ईश्वर अपने सारे ऐश्वर्य- खूबसूरती के साथ वहाँ विद्यमान है। और ऐसे में हम भगवान को कष्ट दे रहे है और उनकी तपस्या को भंग करने की कोशिश कर रहे हैं तो उसके दुष्परिणाम भी हमको भुगतने पडे़ंगे ही। हिमालय की तपोवन घाटी मंे भी हमने ऐसा ही किया जिसका हमें परिणाम भुगतना पड़ा और कई लोग काल के ग्रास बन गये। हमने बचपन से सुना और देखा है कि हमारे बड़े बुजूर्ग हमें जंगलों और पहाड़ों पर चिल्लाने और जोर-जोर से बात करने के लिए मना करते थे। वो सीख हमने खुद सीखी ही और अपने बच्चों को भी बताते हैं कि पहाड़ में हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार देवता तपस्या में लीन रहते है और वैज्ञानिक दूष्टि से पहाड़ों में रहने वाले पशु-पक्षी को परेशानी होने और हिमालयी क्षे़त्र में ग्लेशियरों के टूटने का भय बना रहते है। क्योंकि पहाड़ में आवाजे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक टकराने से आवाज किसी ग्लेशियर को टूटने का कारण बन सकता है। इसलिए यह सावधानी आवश्यक है।

आमजन को तो यह समझ में आता है, लेकिन धन के लालची हमारे भाग्यविधाता और विकास के नाम पर कमाई करने वालों को कौन यह समझाये और अगर कोई समझाने जाएगा तो क्या वह समझ पायेंगे। क्योंकि वह तो कलयुग के रावण है जिन पर धन की लालसा कमीशन के रूप में हावी है और वह हिमालयी क्षेत्रों में निवासरत लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने के साथ-साथ उनको मौत के मुख में जाने को विवश कर रहे हैं। बता दें कि जिन पहाड़ों में चिल्लाने से मना किया जाता रहा है और पहाड़ के पेड़, पत्थर और नदी-नालों को जो पहाड़वासी सदियों से पूजते आ रहे हैं उन्हीं के सामने कमीशन के लालची लोग बारूद बिछाने लगे है और वह समय-समय पर विस्फोट कर यहां के लोगों को काल का ग्रास बनाने में लगे हैं। इसका जीता जागता उदाहरण तपोवन घाटी में जल प्रलय है।

उत्तराखंड राज्य के हिमालयी क्षेत्रों में निवास करने वालों लोगों की बात करें तो यह पर्यावरण प्रेमी होने के साथ-साथ पर्यावरण के संतुलन के लिए भी सदियों से काम कर रहे हैं। यहां बता दें कि पहाड़ के लोग सदियों से नदी, पत्थर, पेड़-पौधों और यहां रहने वाले जीव-जंतुओं की पूजा करने आ रहे हैं। आधुनिकता की चकाचैंध में खोने के बाद भी यहां के लोग प्रकृति से उतना ही प्रेम करते हैं जितना सदियों पहले करते हैं। यही कारण है कि तपोवन घाटी सहित अन्य घाटियों में लोग छह माह तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में निवास करते है और छह माह हिमालय से प्रवास कर देते है। इसके पीछे पर्यावरण की रक्षा पहला और आखिरी मकसद है।

लेकिन हमारे भाग्यविधाताओं और वैज्ञानिकों को यह नहीं दिखता है। यही कारण है कि आज हिमालय के मुहाने तक हमारे भाग्यविधाताओं ने बांध बनाकर आपदाओं को आमंत्रण दे दिया है और जो समय-समय पर विस्फोट बन कर फूटने लगा है। 2013 में केदारनाथ में आयी हिमालयी सुनामी, पिथौरागढ़ और प्रदेश के अन्य स्थानों पर आयी प्राकृतिक आपदाओं के जख्म अभी भरे भी नहीं थे कि तपोवन घाटी में प्रकृति ने तांडव मचाकर हमे संभलने का फिर मौका दिया, पर हम है कि संभलने के बजाय यहां आपरेशन जिंदगी के नाम पर हमारों हेलीकाप्टरों की गड़गडाहट कर हिमालय को कमजोर कर रहे हैं।

हिमालय की पर्वतश्रंखलाएँ शिवालिक कहलाती हैं। सदियों से हिमालय की कन्दराओं (गुफाओं) में ऋषि-मुनियों का वास रहा है और वे यहाँ समाधिस्थ होकर तपस्या करते हैं । हिमालय आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है। उत्तराखंड को श्रेय जाता है इस “हिमालयानाम् नगाधिराजः पर्वतः” का हृदय कहाने का। ईश्वर अपने सारे ऐश्वर्य- खूबसूरती के साथ वहाँ विद्यमान है। ‘हिमालय अनेक रत्नों का जन्मदाता है , उसकी पर्वत-श्रंखलाओं में जीवन औषधियाँ उत्पन्न होती हैं , वह पृथ्वी में रहकर भी स्वर्ग है। पहाड़ी समाज-संस्कृति में पर्वत से लेकर पेड़, जंगल और नदी तक सभी को देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता है।

पहाड़ों, नदियों से छेड़छाड़ को स्थानीय समाज अपने देवता से छेड़छाड़ मानता है और आपदा को न्योता देने जैसे समझता है।गांव वाले भले ही यह बात धार्मिक-सांस्कृतिक वजहों से कह रहे हों, लेकिन वैज्ञानिक भी बिल्कुल यही बात कहते हैं कि प्रकृति से ज्यादा छेड़छाड़ ही आपदाओं की वजह है। वैज्ञानिक हर बार यह बात कहते हैं कि ऐसी घटनाओं का होना भले ही प्राकृतिक प्रक्रिया हो, लेकिन इसकी जड़ में कहीं न कहीं हिमालय में बढ़ता इंसानी दखल भी है। इसे समझने के लिए हम यहां कुछ ऐसी ही सरकारी नीतियों और प्रोजेक्ट्स का जिक्र कर रहे हैं, जो आपदाओं को बुलावा दे सकते हैं।

2013 के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति ने भी यह माना था कि पहाड़ की आपदाओं में पॉवर प्रोजेक्ट्स की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इस समिति का हिस्सा रहे डॉक्टर शेखर पाठक बताते हैं, ‘खुद सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दिया था कि बड़े पॉवर प्रोजेक्ट आपदाओं के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसके बाद भी सरकार ऐसे प्रोजेक्ट को बढ़ावा दे रही है।’डॉक्टर शेखर पाठक कहते हैं, ‘उत्तराखंड में अब ऐसी कोई नदी नहीं बची है, जिस पर पॉवर प्रोजेक्ट न बन रहे हों। ये पहाड़ में लैंड-माइन बिछाने जैसा है। इनके निर्माण में तमाम नियमों को ताक पर रख जो ब्लास्ट किए जाते हैं, वो आपदाओं की वजह बनते हैं।’

भूवैज्ञानिक डॉक्टर एसपी सती भी कुछ ऐसा ही मानते हैं, ‘चमोली की आपदा से अगर दो पॉवर प्रोजेक्ट हटा लिए जाएं तो यह कोई आपदा ही नहीं है। इसमें जो भी नुकसान हुआ है, जितने भी लोग मारे गए, वो सिर्फ पॉवर प्रोजेक्ट के कारण ही मारे गए। गांव के घरों में इससे ज्यादा कोई नुकसान नहीं हुआ। ये यही बताता है कि ऐसी आपदा के लिए पॉवर प्रोजेक्ट ही जिम्मेदार हैं।’ उत्तराखंड लोक निर्माण विभाग के अनुसार अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड में सड़कों की कुल लंबाई 19,439 किलोमीटर थी। बीते बीस सालों में यह बढ़ कर 39,504 किलोमीटर हो चुकी है।

भूवैज्ञानिक डॉक्टर एसपी सती कहते हैं, ‘एक किलोमीटर सड़क बनने पर 20 से 60 हजार क्यूबिक मीटर डस्ट या मलबा निकलता है। जो हजारों किलोमीटर सड़क बनाई गई, उसमें कितना मलबा निकला होगा, इसी से अंदाज़ा लग जाता है।’ डॉक्टर सती आगे कहते हैं, ‘इस मलबे को कहीं सीधे नदियों में डाल दिया जाता है और कहीं पहाड़ी ढलानों पर खिसका दिया जाता है जो बरसात होने पर अंततः नदी में ही जाता है। इससे बाढ़ जैसी स्थिति होने पर नुकसान कई गुना ज्यादा हो जाता है।’

पहाड़ों में सड़कों की मांग लोगों की तरफ से भी होती रही है, लेकिन सड़क निर्माण के तरीके और जरूरत से ज्यादा निर्माण को वैज्ञानिक गलत मानते हैं। केंद्र सरकार की मौजूदा चार धाम सड़क परियोजना पर भी इसी कारण सवाल उठ रहे हैं। डॉक्टर शेखर पाठक कहते हैं, ‘इस तरह की बड़ी परियोजनाओं के पक्ष में सरकार इसलिए रहती है क्योंकि इसमें बड़े ठेके, बड़े कमीशन होते हैं।’ वे आगे कहते हैं, ‘सौ किलोमीटर से ज्यादा लंबी सड़क के लिए EIA यानी एन्वॉयरनमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट के नियम काफी जटिल होते हैं और उसकी अनुमति आसानी से नहीं मिलती, लेकिन सरकार ने चार-धाम के लिए ऐसी चालाकी की कि इस पूरी परियोजना को सौ किलोमीटर से छोटी कई अलग-अलग परियोजनाएं दिखा कर अनुमति ले ली गई। ये प्रोजेक्ट पूरी तरह से गैर-जरूरी है और इससे होने वाले नुकसान की भरपाई कई सालों तक नहीं हो सकेगी।’

वर्ष 2009 में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। इस प्रोजेक्ट को अब अचानक बंद कर दिया गया है। वर्ष 2009 में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। इस प्रोजेक्ट को अब अचानक बंद कर दिया गया है। क्लाइमेट चेंज के ग्लेशियरों पर हो रहे असर की स्टडी के लिए पूरे देश में एक भी केंद्र नहीं है। साल 2009 में केंद्र सरकार ने एक ऐसा केंद्र शुरू करने की योजना बनाई थी। सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी नाम से इस केंद्र की शुरुआत भी हुई और देहरादून स्थित ‘वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी’ को इसकी नोडल एजेंसी बनाया गया। इसके लिए सरकार ने करीब 500 करोड़ का बजट भी बनाया जिसमें से 23 करोड़ रुपए जारी भी कर दिए गए थे। इस सेंटर के तहत एक ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियोलॉजी’ की भी स्थापना होनी थी, जिसके लिए उत्तराखंड के मसूरी में जमीन भी तय कर ली गई थी।

कई सालों तक इसकी तैयारी की गई, इसके लिए वैज्ञानिकों को प्रशिक्षण दिया गया और यह अपना काम शुरू भी कर चुका था, लेकिन पिछले साल 25 जून को इसे अचानक ही बंद कर दिया गया। इस प्रोजेक्ट से जुड़े रहे एक वैज्ञानिक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पैसा और संसाधन तो बर्बाद हुए ही, लेकिन कई सालों की मेहनत और प्रशिक्षण पर जो काम हुआ था, उसका बर्बाद होना सबसे ज्यादा दुखद है। यह केंद्र अगर काम कर रहा होता तो बहुत संभावना थी कि ऋषिगंगा में हुई तबाही के बारे में पहले चेताया जा सकता था।’ पहाड़ों में रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में जाते हुए कभी भी जोर से चीखना-चिल्लाना नहीं चाहिए या सीटी नहीं मारनी चाहिए, क्योंकि तेज आवाज से भी कमजोर पहाड़ी चट्टानें खिसक सकती हैं, लेकिन आज इन्हीं संवेदनशील पहाड़ों के बीच पर्यटन के नाम पर हेलिकॉप्टर गड़गड़ा रहे हैं और सड़क निर्माण के लिए डायनामाइट से ब्लास्ट किए जा रहे हैं।

‘भूगर्भशास्त्र के हिसाब से हिमालय निरंतर बदल रहा है। सवाल ये है कि हम कब बदलेंगे। हमारे पुरखे मानते थे कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में इंसानी दखल कम से कम होना चाहिए। वे केदारनाथ जाने के लिए गौरीकुंड से सुबह-सुबह निकलते थे और 14 किलोमीटर दूर केदारनाथ के दर्शन करके शाम तक वापस आ जाते थे।’ ‘जब हमारे पुरखों ने केदारनाथ में भव्य मंदिर बना दिया था तो वो वहां रात बिताने के लिए और भवन भी वे बना ही सकते थे, लेकिन कुछ सोचकर ही उन्होंने ऐसा नहीं किया। लेकिन हमने ये सब बिसरा दिया और वहां बेतहाशा निर्माण कर दिए।’ऐसे ही निर्माण लगभग पूरे हिमालय में बिल्कुल रिवर बेड पर हो गए हैं। ये नदियों की जमीन पर सीधा-सीधा कब्जा है। इसको हटाने के लिए जब प्रकृति अपना तरीका अपनाती है तो आपदा ही आती है।

 

हिमालय एक पर्वत तन्त्र है जो भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। यह पर्वत तन्त्र मुख्य रूप से तीन समानांतर श्रेणियां- महान हिमालय, मध्य हिमालय और शिवालिक से मिलकर बना है जो पश्चिम से पूर्व की ओर एक चाप की आकृति में लगभग 2400 कि॰मी॰ की लम्बाई में फैली हैं। इस चाप का उभार दक्षिण की ओर अर्थात उत्तरी भारत के मैदान की ओर है और केन्द्र तिब्बत के पठार की ओर है। इन तीन मुख्य श्रेणियों के आलावा चौथी और सबसे उत्तरी श्रेणी को परा हिमालय या ट्रांस हिमालय कहा जाता है जिसमें कराकोरम तथा कैलाश श्रेणियाँ शामिल है। हिमालय पर्वत 7 देशों की सीमाओं में फैला हैं। ये देश हैं- पाकिस्तान,अफगानिस्तान , भारत, नेपाल, भूटान, चीन और म्यांमार।

संसार की अधिकांश ऊँची पर्वत चोटियाँ हिमालय में ही स्थित हैं। विश्व के 100 सर्वोच्च शिखरों में हिमालय की अनेक चोटियाँ हैं। विश्व का सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट हिमालय का ही एक शिखर है। हिमालय में 100 से ज्यादा पर्वत शिखर हैं जो 7200 मीटर से ऊँचे हैं। हिमालय के कुछ प्रमुख शिखरों में सबसे महत्वपूर्ण सागरमाथा हिमाल, अन्नपूर्णा, शिवशंकर, गणेय, लांगतंग, मानसलू, रॊलवालिंग, जुगल, गौरीशंकर, कुंभू, धौलागिरी और कंचनजंघा है। हिमालय श्रेणी में 15 हजार से ज्यादा हिमनद हैं जो 12 हजार वर्ग किलॊमीटर में फैले हुए हैं। 72 किलोमीटर लंबा सियाचिन हिमनद विश्व का दूसरा सबसे लंबा हिमनद है। हिमालय की कुछ प्रमुख नदियों में शामिल हैं – सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र और यांगतेज।

 

 

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