भारत में वीआईपी संस्कृति का समाजशास्त्र

 महाराजाओं, ज़मींदारों और बड़ा साहिबों का आभामंडल:

ऊपर दिए गए विषय पर लिखने का विचार तब आया जब मेरे पड़ोसी, कमोडोर (से.नि.) रवि नौटियाल ने मुझे भारत की व्यापक वीआईपी संस्कृति पर लिखने के लिए प्रेरित किया। कमोडोर नौटियाल जैसे कई लोग तब खिन्न हो जाते हैं जब वे वीआईपी लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर लाइन काटते, विशेष सुविधाएँ मांगते और अपने पद-प्रतिष्ठा का दिखावा करते हुए देखते हैं। आम जनता इस व्यवहार की आलोचना करती है, लेकिन जब बात उनके अपने लोगों की आती है तो वही लोग वीआईपी बनकर व्यवहार करने लगते हैं।

असल में, यदि कोई व्यक्ति ये वीआईपी लक्षण नहीं दिखाता, तो कई बार उसे वह सम्मान भी नहीं मिलता जिसकी उसे उम्मीद होती है। कई बार वीआईपी लोग मजबूर महसूस करते हैं कि वे अपना रुतबा और पद दिखाएँ—नहीं तो लोग उनके दर्जे पर संदेह करने लगते हैं और शायद उनकी बात भी न मानें।

एक वास्तविक घटना सुनिए, जो मुझे वर्षों पहले भारतीय सेना के एक युवा कप्तान ने सुनाई थी। कप्तान बीरू छुट्टियों में अपने उत्तराखंड के गाँव गए थे। शुरुआती वर्षों की एक छुट्टी में वे पानी भरने निकले थे और कंधे पर बाल्टी लिए उन्हें गाँव के पंडितजी मिल गए। पंडितजी ने उन्हें पहचानने के बजाय यह समझ लिया कि वह छोटा भाई सूरू है। उन्होंने पूछा—“सुना है तुम्हारा कप्तान भाई छुट्टी पर घर आया है?” कप्तान बीरू हँसकर बात करते रहे मानो वे सूरू ही हों। वे पंडितजी को घर ले आए और उनके लिए चाय भी बना दी।

पंडितजी अब भी नहीं समझ पाए कि वे किससे बात कर रहे हैं। उन्होंने फिर पूछा कि कप्तान कहाँ है। तब बीरू ने बताया, “पंडितजी, मैं ही कप्तान हूँ।”ह सुनकर पंडितजी हक्के-बक्के रह गए। हैरान होकर बोले, “किस फौज ने तुझे कप्तान बनाया है?”स्पष्ट था—वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई कप्तान पानी भरता हुआ और चाय बनाकर परोसता हुआ दिखाई दे। उन्हें शायद वह ‘वीआईपी रवैया’ अपेक्षित था, जो उन्हें वहाँ नहीं दिखा।

हमारी सामंती संस्कृति बहुत गहरी है। यह सरकारी और निजी दफ़्तरों में भी दिखती है—जहाँ पानी और चाय परोसने, फ़ाइलें उठाने और कार चलाने के लिए अलग लोग रखे जाते हैं। भारत के अधिकांश मध्यमवर्गीय घरों में भी घरेलू कामों के लिए लोग रखे जाते हैं। और अगर कभी घर का कोई सदस्य वही काम करने को कह दिया जाए, तो तुरंत प्रतिक्रिया होती है—उच्च स्वर में या धीमे से—“मुझे नौकर समझ रखा है क्या?”यह प्रतिक्रिया अपने भीतर वर्ग, जाति और सामंती मानसिकता की परतें समेटे हुए है।

गहराई से दे—और मैंने यह पहले भी लिखा है—एक भारत नेता या अभिनेता बनने का सपना देखता है, जबकि दूसरा मंत्री या सेंट्री बनने की आकांक्षा रखता है। मगर मूल रूप से दोनों ही चार P’s के पीछे भाग रहे हैं: Power (ताकत), Prestige (प्रतिष्ठा), Paisa (पैसा), और Pahchan (पहचान)। भारत में वीआईपी की पहचान इन्हीं चार तत्वों से होती है।

सामाजिक अनुबंध सिद्धांतकार थॉमस हॉब्स का मत था कि शक्ति की चाह निरंतर और बेचैन करने वाली होती है—जो आत्म-सुरक्षा की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है। यह चाह मनुष्य को “सबका सबके विरुद्ध युद्ध” की स्थिति में ले जाती है। इस अव्यवस्था से निकलने का मार्ग, उनके अनुसार, एक सर्वोच्च सत्ता का निर्माण है—जो कानून, नैतिकता और न्याय को परिभाषित करे।

भारत में वीआईपी संस्कृति और भी गहरी क्यों है? क्या इसका कारण हमारे इतिहास में छिपा वह आभामंडल है—महाराजाओं, सामंती जमींदारों और ब्रिटिश काल का? आज भी हमारे नागरिक और सैन्य प्रोटोकॉल में उन दिनों के व्यवहार और जीवनशैली की झलक मिलती है। मुझे लगता है कि अंग्रेजों ने भी प्रशासन में बहुत कुछ रजवाड़ों और ग्रामीण सामंतों से अपनाया था, और इस मिश्रण ने भारत में वीआईपी संस्कृति को स्थायी बना दिया।अब असली प्रश्न है: हम इस मानसिकता से कैसे मुक्त होंगे, जब हर कोई खुद वीआईपी बनना चाहता है?

—देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी

लेखक एक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में सक्रिय हैं।

 

 

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