उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में “भूतिया गांवों” की समस्या कई वर्षों से चर्चा में है। लेकिन इस पर जो विश्लेषण हो रहे हैं, वे न तो ज़मीनी सच्चाई को समझते हैं और न ही विकास समाजशास्त्र की मूलभूत समझ रखते हैं।इस संकट को समझने के लिए हमें पर्वतीय विकास के ढांचे को गहराई से देखना होगा। 1970 के दशक की शुरुआत से लेकर 1980 के दशक के अंत तक जो ‘मनी ऑर्डर अर्थव्यवस्था’ का दौर चला, वह इस बात का संकेत था कि ग्रामीण विकास योजनाएं मूलतः विफल थीं। 1980 के दशक से जनगणना आंकड़े यह स्पष्ट दिखाते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी सड़कों, संचार सुविधाओं, पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का घोर अभाव था। परिणामस्वरूप, बेहतर रोजगार अवसरों की तलाश में लोग स्थायी रूप से गांवों से बाहर चले गए — और इन्हीं छोड़े गए गांवों को आज “भूतिया गांव“ कहा जा रहा है।
कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है कि लोग खेती छोड़कर इसलिए गए क्योंकि जंगली जानवर — विशेषकर सुअर और बंदर — फसलों को नुकसान पहुंचा रहे थे। लेकिन यह बात ज़मीनी सच्चाई से कोसों दूर है। दरअसल, पलायन तो इससे काफी पहले ही शुरू हो गया था। जब हर ज़रूरत की चीज़ बाजार से खरीदनी पड़ी, तो गांव में कठिन जीवन जीने का क्या औचित्य था — खासकर महिलाओं के लिए, जिन पर सबसे ज़्यादा बोझ था? ‘पेंशनधारी पीढ़ी’ जब अपने विवाहित बच्चों के साथ शहरी इलाकों में बस गई, तो गांवों का वीरान होना एक स्वाभाविक परिणाम था।
शुरुआत में, 1950–60 के दशकों में, जो लोग बाहर रहते थे, वे दूसरों के लिए आदर्श बन गए — यह था “पुल फैक्टर“। लेकिन बाद के दशकों में जब बुनियादी रोज़गार के अवसर ही नहीं रहे, तो मजबूरी में लोगों ने पलायन किया — यानी “पुश फैक्टर“ हावी हो गया।पर्वतीय कृषि कभी भी ‘हरित क्रांति’ के स्तर तक नहीं पहुंच पाई। इसका मुख्य कारण भूमि का टुकड़ों में बंटा होना और आधारभूत ढांचे की कमी थी। भूमि समेकन न होने के कारण नकदी फसलें, बागवानी और अन्य कृषि आधारित उद्योग कभी विकसित नहीं हो सके। पारंपरिक और जीविका मात्र की खेती कभी भी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाई।
वहीं दूसरी ओर, मैदानी क्षेत्रों में गांव बाजारों और फैक्ट्री सिस्टम से जुड़ गए। डेयरी, पोल्ट्री, बकरी पालन जैसी पशुपालन गतिविधियाँ शहरी मांग से जुड़ीं। कृषि मंडियां, सहकारी संस्थाएं और कृषि उत्पादों में मूल्य संवर्धन से ग्रामीण आय और आधारभूत ढांचा बेहतर हुआ। लेकिन यह विकास पर्वतीय गांवों तक कभी नहीं पहुंचा। न तो कृषि से और न ही पशुपालन से कोई अधिशेष उत्पन्न हुआ — और गांव गरीब ही रह गए।राज्य गठन से पहले ही पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन स्वतः विकसित होने लगा था। धार्मिक पर्यटन तो सदियों से चला आ रहा है, लेकिन यह स्थानीय लोगों को पर्याप्त रोजगार नहीं दे सका। राज्य बनने के बाद राजधानी देहरादून में होने से पूरी सरकारी मशीनरी मैदानों में सिमट गई। इन नीतिगत बदलावों के दूरगामी प्रभाव नीति-निर्माताओं की समझ से परे रहे।
आज, राज्य गठन के 18 साल बाद भी, एक के बाद एक गांव खाली हो रहे हैं। अब जबकि सड़कों, बिजली, पुलों, और स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाओं की स्थिति पहले से बेहतर है — फिर भी पलायन नहीं रुका। अब बहुत देर हो चुकी है; नुकसान हो चुका है। परिवार शहरों में बस चुके हैं; नई पीढ़ी ही नहीं, पुरानी पीढ़ी भी अब शहरी जीवन की सुविधाओं के आदी हो चुके हैं। अब वापसी की कोई संभावना नहीं बची। वहां केवल यादें रह गई हैं — जिन्हें शायद नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में जिंदा रखा गया है — उस पीढ़ी के लिए जो वहां कभी रहा करती थी।पर सवाल यह भी है कि जब लोग अब आरामदायक जीवन जी रहे हैं, तो फिर पलायन की चिंता क्यों?
रहने दीजिए जैसी स्थिति है — जैसा कि नारा है:
“उत्तराखंड — देवभूमि!”
— देवेंद्र कुमार बुडाकोटी,लेखक समाजशास्त्री हैं और पिछले चार दशकों से विकास क्षेत्र से जुड़े हैं। उनके शोध कार्यों को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन द्वारा उद्धृत किया गया है।

