गायों में सबसे पवित्र है उत्तराखंड की सुरागाय यानी चंवरी गाय

उदय दिनमान डेस्कःभक्तों में बदरीनाथ धाम मंदिर में धन-दौलत और सम्पत्ति दान करने की होड़ मची रहती है। कोई भगवान बदरी विशाल को अपनी बेशकीमती जमीन दान देता है, तो कोई उनके चरणों में अपने जीवन भर की जमापूंजी व सोने-चांदी के जेवरात अर्पित कर देता है। चँवर शब्द का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य महाभारत में मिलता है। यह पशुओं मुख्यतः ‘सुरा’ नामक गाय की पूँछ के लंबे बालों तथा मोर पंखों से बना वह गुच्छा होता है, जो दस्ते के अगले भाग में लगा होता है।

चँवर को देवमूर्तियों, धर्मग्रंथों तथा राजाओं आदि के ऊपर इधर-उधर डुलाया जाता है, जिससे कि उन पर मक्खियाँ आदि न बैठने पायें।’श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध’ में रुक्मिणी जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की सेवा को दर्शाया गया है। शुकदेवजी कहते हैं- “परीक्षित! एक दिन समस्त जगत के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे।

भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणी जी सखियों के साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं। उद्यान में पारिजात के उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों में से अगर के धूप का धुआँ बाहर निकल रहा था।

ऐसे महल में दूध के फेन के समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनों से युक्त सुन्दर पलँग पर भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे और रुक्मिणी जी त्रिलोकी के स्वामी को पतिरूप में प्राप्त करके उसकी सेवा कर रही थीं। रुक्मिणी जी ने अपनी सखी के हाथ से वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नों की डांडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणी जी उसे डुला-डुलाकर भगवान की सेवा कर रही थीं।

 

चँवर शब्द का उल्लेख पौराणिक है। यह पशुओं मुख्यतः ‘सुरा’ नामक गाय की पूँछ के लंबे बालों तथा मोर पंखों से बना वह गुच्छा होता है, जो दस्ते के अगले भाग में लगा होता है। चँवर को देवमूर्तियों, धर्मग्रंथों तथा राजाओं आदि के ऊपर इधर-उधर डुलाया जाता है, जिससे कि उन पर मक्खियाँ आदि OTI BOF न बैठने पायें। ये उच्च हिमालयी क्षेत्रों में तिब्बत लेह लद्दाख़ में देखने को मिलते है । चॅवर की अपनी एक अलग महत्वता है । इसे उच्च हिमालयी क्षेत्र में झूप्पु, या झब्बू भी कहा जाता है ।

 

गोवंशीय जानवर सदियों से मानव जाति की सेवा करते आ रहे हैं. इन्हीं में से एक है उच्च हिमालयी इलाकों की लाइफ लाइन कहा जाने वाला ‘झब्बू’, जो सामान ढोने, खेती करने और माइग्रेशन के काम आता है. याक प्रजाति का ये जानवर ना सिर्फ हिमालयी जनजीवन का एक अहम हिस्सा है, बल्कि हिमालयन संस्कृति का भी प्रतीक बना हुआ है.

याक और चंवर गाय की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा होने वाले नर बच्चे को ‘झब्बू’, और मादा को ‘चंवर’ गाय कहा जाता है. ये दोनों ही खास विशेषताएं लिए हुए हैं. झब्बू जहां बैल से चार गुना अधिक शक्तिशाली होता है. वहीं चंवर गाय का दूध बेहद पौष्टिक और पवित्र माना जाता है. शास्त्रों में भगवान के दुग्धाभिषेक के लिए चंवर का दूध सर्वोत्तम माना गया है. आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता में भी चंवर गाय का उल्लेख मिलता है.

आधुनिक प्राणीशास्त्र में पालतू चंवर को पेफागुस गुन्नीएन्स गुन्नीएन्स लिनिअस (Prophages gunnies gunnies Linnaeus) कहते हैं.उच्च हिमालयी इलाकों की लाइफलाइन है ‘झब्बू’.पढ़ें-खाद्य विभाग ने 47 मिलावटखोरों पर वाद किया दायर, केदारनाथ का प्रसाद होगा सर्टिफाइडजबकि, वनचंवर को पेफागुस गुन्नीएन्स लिनिअस (Prophages gunnies Linnaeus) कहा जाता है. याक प्रजाति का झब्बू सबसे अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में पाये जाने वाले चौपाया जानवरों में से है.

20 हजार फीट की ऊंचाई पर भी ये पहुंच सकता हैं. खास बात यह है कि झब्बू को याक की तरह बर्फीले या ऊंचाई वाले इलाके की जरूरत नहीं होती है. वह निचले इलाकों में भी जीवित रह जाता है. उच्च हिमालयी इलाकों में निवास करने वाली जनजातियों के लिए ये समान ढोने और कृषि कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है.

यही नहीं इसकी सवारी भी की जा सकती है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों के ग्रामीण इसी के मदद से माइग्रेशन करते हैं.झब्बू पालतू गाय-बैल से बड़े नहीं होते, लेकिन ऊंचे कंधे तथा बड़े बालों के कारण ये अधिक रोबीले दिखाई पड़ते हैं. ये छह फुट ऊंचे और लगभग सात फुट लंबे होते हैं. झब्बू में प्रजनन क्षमता नहीं होती, मगर यह काफी शक्तिशाली होता है. उसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चार बैलों का काम सिर्फ एक झब्बू कर लेता है.

ग्लोबल वार्मिंग और लोक संस्कृति में आये बदलाव के अब यह जानवर दुर्लभ श्रेणी में पहुंच गया है. इसके संरक्षण को लेकर भी सरकारी स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं. एक समय था जब पिथौरागढ़ के उच्च हिमालयी इलाकों में ये हजारों की तादात में पाए जाते थे. मगर, अब इनकी संख्या घटकर मात्र 150 पहुंच गयी है.

पढ़ें-देहरादून के नामी रेस्टोरेंट में सड़े टमाटरों से बन रहा है खाना, छापेमारी में हुआ खुलासा12 हजार 300 फीट की ऊंचाई पर स्थित कुटी के रहने वाले पान सिंह कुटियाल बताते हैं कि बदलते सामाजिक परिवेश में भले ही झब्बू पालने वाले लोगों की संख्या कम हो गयी है. मगर, आज भी ये बहुत उपयोगी जानवर है.

इसे कृषि कार्य, सामान ढोने और माइग्रेशन में इस्तेमाल किया जाता है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सड़क पहुंचने के बाद अब वे सर्दियों में इसे निचले इलाकों में ले जाते हैं और गर्मियों में इसी में समान लड़कर उच्च हिमालयी इलाकों की ओर माइग्रेशन करते हैं.

दुनिया की सारी गायें उतनी ही पवित्र हैं या फिर सिर्फ़ वही जो अखंड भारत में पैदा हुई हैं. 2012 में हुई भारत की पशुधन जनगणना के मुताबिक़ 2007 की तुलना में देसी गायों की संख्या अभी भी ज़्यादा है.लेकिन बढ़ोतरी विदेशी या वर्णसंकर गायों की संख्या में हो रही है. देश में 4.8 करोड़ देसी गायें हैं, जो 2007 में 4.1 करोड़ थीं.तो वह कौन से गुण हैं जो देसी गाय को पावन बनाते हैं जबकि वो विदेशी नस्लों की गायों के मुकाबले कम दूध देती है?

विश्व हिन्दू परिषद की गोरक्षा समिति के हुकुमचंद कहते हैं, “हमारी देसी गाय जब बछड़े को जन्म देती है तब वो दूध देती है. विदेशी नस्ल की गाय के दूध देने के लिए बछड़ा होना ज़रूरी नहीं है. देसी गाय का दूध जल्दी पच जाता है जबकि भैंस और विदेशी नस्ल की गाय के दूध को पचने में ज़्यादा वक़्त लगता है.”

गोरक्षा समिति के अनुसार देसी गाय का सिर्फ़ दूध ही नहीं, उसका गोबर भी गुणकारी होता है जिससे बीमारियां दूर होती हैं.करनाल स्थित राष्ट्रीय पशु आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो के एक शोध में देसी गाय के दूध की गुणवत्ता को भी विदेशी नस्ल की गायों से बेहतर बताया गया है.मगर भारत में अब देसी गायों के मुकाबले विदेशी नस्ल की गाय ज़्यादा लाभकारी साबित हो रही है क्योंकि वो ज़्यादा दूध देती है.

दक्षिण दिल्ली में दूध बेचने वाले फूल सिंह कहते हैं कि वो देसी गाय की बजाय विदेशी नस्ल की गाय को ही अपने व्यवसाय के लिए अच्छा मानते हैं क्योंकि देसी गाय कम दूध देती है.वो कहते हैं, ”अब तो क्रास-ब्रीड वाली गाय ही ज़्यादा पाली जा रही है. अब तो वीर्यरोपण का दौर है.””विदेशी नस्ल या क्रास ब्रीड की गाय ज़्यादा दूध देती है और उससे मुनाफ़ा भी ज़्यादा होता है. एक तो देसी गाय कम दूध देती है और दुसरे उसके रख-रखाव में भी काफ़ी जतन करना पढता है.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *