पटना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जोड़ी ने राजग की प्रचंड जीत की ऐसी पटकथा लिखी जिसने 2010 के बाद के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। एनडीए 202 सीटें जीत गया। 89 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी तो जदयू ने भी पिछली बार के मुकाबले लगभग दोगुनी 85 सीटों पर जीत दर्ज की।
एनडीए की यह जीत 2010 में मिले जनादेश के करीब है, जब उसके तत्कालीन दो घटक दलों भाजपा और जदयू को 206 सीटों पर सफलता मिली थी। करीब 20 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद सत्ता विरोधी रुझान से एनडीए सरकार अप्रभावित रही।दूसरी तरफ सरकार बनाने की तैयारी कर चुके सात दलों के महागठबंधन को चुनाव परिणाम से गहरा सदमा लगा है। महागठबंधन ने विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और विकासशील इंसान पार्टी के संस्थापक मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित किया था। परिणाम बता रहा है कि तेजस्वी किसी तरह नेता विपक्ष का पद बचा पाएंगे।
उधर उप मुख्यमंत्री के लिए प्रस्तावित मुकेश सहनी की पार्टी वीआइपी का 18वीं विधानसभा में प्रवेश भी नहीं हो पाया। वीआइपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। नवगठित इंडियन इंक्लूसिव पार्टी के लिए राहत रही कि संस्थापक आइपी गुप्ता सहरसा से चुनाव जीत गए। इसके अलावा दो उम्मीदवार चुनाव हार गए।नव गठित जन सुराज पार्टी को भी मामूली सदमा नहीं पहुंचा है, जिसके सभी 240 उम्मीदवार विधानसभा चुनाव हार गए। चुनाव में बड़ी कामयाबी लोजपा (रा) को हासिल हुई है। यह पार्टी 2020 में एनडीए से अलग चुनाव लड़ी थी और केवल एक सीट पर सफलता मिली थी, लेकिन इस चुनाव में उसके 28 उम्मीदवार खड़े हुए, जिनमें से 19 जीत गए। तीन वाम दल-भाकपा, माकपा और भाकपा माले महागठबंधन के घटक के रूप में चुनाव में गए थे। इन्हें भी निराशा मिलीं।
सुशासन और विकास। मूल में दो मुद्दा और इन्हीं पर भरोसे ने राजग की झोली में दूसरी बार दो सौ से अधिक सीटें पुन: भर दी। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में इसे 206 सीटें मिली थीं। 15 वर्षों बाद ठीक उसी तरह प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश है। यह यूं ही नहीं है।भाजपा-जदयू की परंपरागत जोड़ी के प्रति विश्वास। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रा), जीतन राम मांझी की हम पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा के रालोमो ने सामाजिक समीकरण को और पुख्ता किया। सबसे बड़ी बात यह कि आपस की एकजुटता का संदेश निचले स्तर तक कार्यकर्ताओं और आम मतदाताओं के बीच पहुंचाने में ये सफल भी रहे। नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का।
इस प्रचंड बहुमत के पीछे जनता का वह विश्वास है, जो इन चेहरों में दिखाई पड़ा। महागठबंधन ने वोट चोरी, पलायन और नौकरी को मुद्दा बनाने का प्रयास जरूर किया, पर तार्किक ढंग से विश्वास का वातावरण बनाने में सफल नहीं हो सका। यह होगा कैसे? इसका कोई रोडमैप नहीं था। मुद्दे यहीं पर मात खा गए, जबकि नीतीश कुमार के सुशासन को राजग न केवल आम जन तक पहुंचाने में सफल रहा, बल्कि वर्तमान की नींव पर बेहतर भविष्य का खाका भी खींचकर बताया। आंकड़ों के साथ।एक ओर था-हमने किया। दूसरी ओर, हम करेंगे। बिहार की चुनावी राजनीति वर्तमान और भविष्य के सपनों के बीच करवटें लेती रहीं। अंतत: जनता ने वर्तमान में अपना भरोसा जता दिया। इस चुनाव में सुशासन और विकास का मुद्दा ही प्रमुख रहा। राजग लालू प्रसाद के कार्यकाल की याद दिलाते हुए जंगलराज की तस्वीर पेश करता रहा।
नीतीश कुमार बार-बार 2005 से पहले के बिहार की तस्वीर दिखाते रहे। चुनावी सभा में पीएम ने ‘कट्टा, कनपट्टी और कपार’ की व्याख्या करते हुए पूछा कि कैसा बिहार चाहिए? यह बात लोगों तक बहुत तेजी से पहुंची, जबकि विपक्ष इसकी तोड़ ढूंढ पाने में सफल नहीं हो सका। चुनाव की अधिसूचना के बाद भी दोनों ओर सीटों को लेकर आपस में विवाद भी थे, राजग ने इसे समय रहते सुलझा लिया। लेकिन, दूसरी ओर महागठबंधन अंत अंत तक असमंजस में ही रहा और कुछ सीटों पर आपस में ही एक दूसरे से भिड़ भी गए।सीएम फेस और डिप्टी फेस को लेकर भी जिस तरह दबाव की राजनीति हुई, उसका संदेश भी अच्छा नहीं गया। यानी, यहां ‘स्वयं’ आगे हो गया था, आम जन के मुद्दे पीछे छूट चुके थे। सुशासन, सुरक्षा और विकास के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश के चेहरे पर जनता का जो भरोसा शुरू से दिखा, वैसा माहौल बना पाने में विपक्ष नाकाम रहा।
राहुल गांधी ने यहां वोटर अधिकार यात्रा निकाली, पर वह कहीं से चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। वोट चोरी के आरोपों को जनता ने सिरे से खारिज कर दिया। उनकी सभाएं भी हुईं, पर तब तक देर भी हो चुकी थी और वे यह बता पाने में सफल नहीं हो सके कि कैसा बिहार बनाएंगे। इस चुनाव के महत्वपूर्ण पहलुओं में महिला मतदाता प्रमुख रहीं।नीतीश सरकार में पढ़ाई से लेकर रोजगार तक की सुविधा, शिक्षक से लेकर पुलिस बल तक में बहाली, सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारी के लिए प्रोत्साहन राशि को उन्होंने याद रखा था। उद्यम के लिए 10 हजार की योजना उस विश्वास को और बल दे गई। चुनाव परिणाम स्पष्ट बता रहा है कि यह वोट थोक में कहां गया।
निश्चित रूप से यहां जातीय घेरा टूट चुका था और महिलाओं ने स्वयं को एक वर्ग के रूप में पहचानते हुए मनपसंद सरकार चुनने का निर्णय किया। राजद के माई समीकरण की स्थिरता पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है, अन्यथा परिणाम इतना अधिक खराब भी नहीं होता। युवा और नई पीढ़ी अब कहीं न कहीं अपने करियर और भविष्य को लेकर सचेत है।इसकी संभावना उसे ‘डबल इंजन’ सरकार में ही दिखी, क्योंकि चाहे नौकरी हो या स्टार्टअप या रोजगार, उसे उन्होंने इस सरकार में फलीभूत होते देखा भी। जब केंद्र की सहायता हो और राज्य में भी समान सरकार तो संभावनाएं बढ़ जाती हैं। मोदी-नीतीश की जोड़ी यह बताने में सफल रही।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन की करारी हार सिर्फ सीटों का गणित नहीं, बल्कि रणनीति, नेतृत्व, समन्वय और चुनावी जमीन की अनदेखी का मिलाजुला परिणाम है। यह हार कई स्तरों पर गहरे संकेत छोड़ती है। चुनाव के नतीजे विपक्षी राजनीति के संकट और महागठबंधन की आंतरिक टूट-फूट को उजागर करती है, जिसकी वजह से महागठबंधन सत्ता की रेस में पीछे रह गया। महागबंधन की हार के पांच प्रमुख कारण रहे। ये कारण ही उसकी पराजय की वजह बने।
महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी उसके नेतृत्व का अस्थिर ढांचा रहा। चुनाव के शुरुआती दौर में राजद और कांग्रेस के बीच नेतृत्व और समन्वय और चेहरे को लेकर जो विवाद हुए उसे जनता और मतदाताओं ने भी महसूस किया।चुनाव के पहले जब राजनीतिक दल सीटों के तालमेल से लेकर प्रचार की रणनीति पर काम करते हैं उस वक्त महागठबंधन के तमाम सहयोगी दल सीटों की खींचतान, मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के फेस जैसे मामलों को लेकर आपस में उलझे रहे।
तेजस्वी ने भले पूरे प्रदेशभर में घूम-घूम कर चुनावी सभाएं कीं, लेकिन गठबंधन के साथी दलों के साथ मुद्दों और सीटों को लेकर ठोस रणनीति बनाने में असफल साबित हुए।महागठबंधन चुनावी एजेंडा तय करने में पूरी तरह असफल रहा। रोजगार, महंगाई, शिक्षा और कृषि जैसे बड़े मुद्दे जरूर उठाए गए, लेकिन जो नैरेटिव बनना चाहिए था, वह नहीं बन पाया। इसके उलट एनडीए ने विकास, कानून-व्यवस्था और स्थिर सरकार के माडल को आक्रामक तरीके से जनता तक पहुंचाया।
महागठबंधन की आवाज मतदाताओं तक बिखरी हुई और अस्पष्ट पहुंची। तेजस्वी यादव की सभाओं में भी वही पुराने वादों की पुनरावृत्ति होती दिखी, जिससे युवाओं को नई दिशा का भरोसा नहीं मिला।गठबंधन की पांचवीं बड़ी समस्या थी स्थानीय स्तर पर संगठन की निष्क्रियता। महागठबंधन कई क्षेत्रों में समय पर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में नाकाम रहा। राजद के कई पुराने मजबूत वोट बैंक इलाके में भी बूथ प्रबंधन कमजोर पड़ा।
इसके अलावा जिन सीटों पर उम्मीदवार बदले गए, वहां स्थानीय असंतोष खुलकर उभर आया। कांग्रेस के कई उम्मीदवारों को जनता न पहचानती थी, न स्वीकार कर पाई। युवाओं और महिलाओं को भी लुभाने और अपनी ओर आकर्षित करने में महागठबंधन सफल नहीं हो पाया।बिहार की राजनीति में सामाजिक समीकरण सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि भरोसे और जमीन पर डिलीवरी से जुड़े होते हैं। इस बार महागठबंधन ने जातीय गणित का अति-विश्वासपूर्वक इस्तेमाल किया, लेकिन सामाजिक परिवर्तन और नए समीकरणों को समझने में चूक गया।
पिछड़े तबकों में एक नई राजनीतिक चेतना उभर रही थी, जिसका लाभ एनडीए ने बेहतर ढंग से उठाया। महिला मतदाताओं, पहली बार वोट करने वाले युवाओं और गैर-परंपरागत जातीय समूहों में महागठबंधन अपनी पकड़ नहीं बना सका। विपक्ष सिर्फ पुराने वोट बैंक के भरोसे चुनाव जीतने बैठा था, जबकि मतदाता नए मुद्दों, नए चेहरे और स्थिर नेतृत्व की तलाश में था।महागठबंधन का एक बड़ा स्तंभ होने के बावजूद कांग्रेस इस चुनाव में लगातार बोझ की तरह साबित हुई। पार्टी में टिकट वितरण को लेकर भारी नाराजगी थी। कई सीटों पर गलत प्रत्याशी चयन की वजह से स्थानीय समीकरण बिगड़ गए। कृष्णा अल्लावारू जैसे प्रभारी नेताओं की कार्यशैली से कार्यकर्ताओं में असंतोष रहा।
राजद-कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को लेकर गहरे मतभेद शुरू से अंत तक बने रहे। नतीजा यह हुआ कि संयुक्त लड़ाई कमजोर, बिखरी और अविश्वसनीय दिखी। कांग्रेस की कमजोर ग्राउंड मशीनरी और प्रचार की अनियमितता महागठबंधन के लिए घाटे का सौदा साबित हुई।महागठबंधन की करारी हार ने स्पष्ट कर दिया कि चुनाव केवल नारों या गठजोड़ से नहीं जीते जाते l नेतृत्व की मजबूती, संगठनात्मक सक्रियता और स्पष्ट राजनीतिक नैरेटिव ही जीत की कुंजी l इस चुनाव में महागठबंधन ने वही खोया जो उसे मजबूत बनाता था समीकरण रणनीति, समझ और जमीनी पकड़ l
