इस क्षेत्र में आज भी सांपों के रूप में विचरण करते हैं अगस्त्य ऋषि !

उदय दिनमान डेस्कः अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड मोटर मार्ग पर 16 कि०मी० दूरी तय करने के पश्चात् ऋग्वेद के प्रथम मंडल 165 सूक्त से 191 सूक्त के मंत्रद्रष्टा ऋषि अगस्त्य की तपोभूमि के दर्शन होते हैं।

समुद्रतल से 810 मी० ऊँचाई पर लगभग पांच हजार की जनसंख्या वाला यह नगर धार्मिक केंद्र के साथ-साथ अपने नैसर्गिक सौंदर्य के कारण पर्यटन स्थली भी है। पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार हिमालय में फैले समुद्र को अगस्त्य ऋषि ने पी लिया था तथा उसका प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने यहाँ पर तप किया था। केदारखंड में लिखा है-
मन्दाकिन्यास्तटे रम्ये नानामुनिजनाश्रये।
अगस्त्यादिन्महाभागन्नात्वां विप्रोनलाश्रमे।।
(अध्याय 197ः8)

ऋग्वेद (1-179ः6) में भी अगस्त्य मुनि का आश्रम मंदाकिनी के तट पर होने का उल्लेख आता है। मंदाकिनी मंद गति से बहने वाली नदी है। अगस्त्य ऋषि को कुंभज भी कहते हैं। कुंभज के निकट स्थान में बहने वाली नदी को कुंभा भी कहा जाता है। ऋषि अगस्त्य ने नागपुर में धातुओं को भूगर्भ से खुदवाया था। इससे उनका उपनाम खनमान, खनित्र भी हुआ। जहाँ भूमि खोदी गई, उस पट्टी का नाम ही खदेड़ पड़ गया।

अगस्त्य की मूर्तियाँ पूर्व-दक्षिण एशिया और दक्षिण भारत में भी प्राप्त हुई हैं। अगस्त्य को पुलस्त्य का नाम भी दिया गया है, उन्हें कुंभज भी कहते हैं। अगस्त्यमुनि के पास ही कुंभड़ी गाँव होने से लगता है कि इस क्षेत्र में कुंभड़ी जाति के लोग रहते थे। महाभारत आदि पर्व (214ः2) में तीर्थयात्रा के समय यहाँ अर्जुन का आगमन हुआ था।

यहाँ पर एक 500 × 300 मी० का मैदान है। इस प्रकार का मैदान इस क्षेत्र में गौचर के अलावा कहीं नहीं है। मैदान के पश्चिमी भाग में पावन मंदाकिनी का दृश्य देखते ही बनता है। मैदान के पूर्वी भाग में मोटर मार्ग है। सड़क के किनारे-किनारे दुकानें तथा बस्ती बन गई है। स्टेशन से ही ऊपर सीढ़ियाँ चढ़कर अगस्त्यमुनि का मंदिर है। मंदिर देखने से बहुत पुराना नहीं लगता है। मंदिर के द्वार पर हनुमान तथा भीम के सीमेंट चित्र बने हुए हैं।

मंदिर के गर्भगृह में ताम्रमय अष्टधातु की द्विभुज मूर्ति है। दाहिनी ओर दीवार पर हर-गौरी की मूर्ति है। इस क्षेत्र के लोग अगस्त्यमुनि को ही अपना इष्ट देव समझते हैं। फसल पकने पर सर्वप्रथम अनाज की पूज (पूजा) मंदिर में दी जाती है। अनुश्रुति के अनुसार अगस्त्य ऋषि की मूर्ति पहले यहाँ से आगे विजयनगर के उत्तरी क्षेत्र में एक भव्य मंदिर के अंदर थी। बाढ़ में बह जाने से मूर्ति मैदान के पास आ गई तथा पुनः यहाँ प्रतिष्ठित की गई।

पहले वाले मंदिर की जगह को अभी भी पुराना देवल (देवालय) कहा जाता है। वर्ष 2013 की बाढ़ में पुराना देवल भी भूस्खलन की चपेट में आ गया है। नागवंश की भूमि होने से माना जाता है कि अगस्त्यमुनि इस क्षेत्र में सांपों के रूप में विचरण करते हैं। सांप कुछ शुभ-अशुभ होने पर दिखाई देते हैं। दिखने पर कोई इन सांपों को मारता नहीं है।

मुनि जी के यहाँ 12 वर्ष में यज्ञ होता है। यज्ञ से पूर्व मुनि जी की उत्सव मूर्ति को देवरा (डोली यात्र) में गाँव-गाँव ले जाया जाता है। एक जात्र गीत के अनुसार पुरातनकाल में अगस्त्यमुनि में कुछ दैत्यों ने अपना निवास स्थान बनाया था। जो कोई वहाँ पूजा करने जाता था, वे उसे खा लेते थे। लोगों ने दैत्य से सलाह कर बारी-बारी पूजा करने तथा उसके बाद उस व्यक्ति को खा जाने की बात तय की।

जब वहाँ पर एक बुढ़िया के इकलौते नाती की बारी आई तो उसको दुःखी देखकर अगस्त्य ऋषि ने उस बुढ़िया के नाती के बदले पूजा करने की ठानी। ऋषि जब पूजा करके वापस आने लगे तब दैत्यों ने उन्हें मार डालने की सोची। मुनि जी ने अपनी कुक्षि से मैल निकालकर गोली बनाई तथा दैत्यों की ओर फेंक दी।

उस मैल से देवी उत्पन्न हुई जिसने दैत्यों का संहार किया। उनमें से दो दैत्य एक बदरीनाथ और दूसरा अलकनंदा पार साणेसुर भाग गए। (गढ़वाल के लोक नृत्य गीत-शिवानंद नौटियाल पृ- 269)। साणेसुर स्थान मेें देवी की स्थापना की गई तथा माना जाता है कि दैत्य के बदरीनाथ भागने से वहाँ शंख नहीं बजता है। आज भी अगस्त्यमुनि में यज्ञ से पूर्व यज्ञ कुंड की पठाल को उखाड़ने के लिए सबसे पहले हाथ लगाने वाला व्यक्ति 6 माह से अधिक जीवित नहीं रहता है।

उस व्यक्ति को मंदिर की ओर से क्रिया-कर्म का पूरा खर्च मरने से पूर्व ही दे दिया जाता है। इस क्षेत्र की समस्त भूमि का मालिक अगस्त्य मुनि को ही माना जाता है। पहले यह मंदिर केदारनाथ के रावल के अधीन था। वर्तमान में मठाधीश व पुजारी की देख-रेख में मंदिर की पूजा-अर्चना की जाती है।

मंदिर के पुजारी बेंजी गाँव के बेंजवाल लोग हैं। पहले श्रावण-भाद्रपद में यहाँ रात्रिभर जागर लगते थे। जागरों में अगस्त्यमुनि के नाते-रिश्तों का वर्णन कर उनकी महिमा का गुणगान किया जाता है। यहाँ पर बैशाखी के दिन बहुत बड़ा मेला लगता है।
अगस्त्यमुनि मंदिर में नियमित पूजा अर्चना के साथ ही दोपहर में सवा पाथा चावल का भात भोग के लिए बनाया जाता है। कई श्रद्धालुओं का भोजन भी यहीं पर होता है। मंदिर के मढ़ापति (मठाधीश) श्री अनुसूया प्रसाद बेंजवाल के प्रयासों से यहाँ धर्मशाला का जीर्णोद्धार एवं सभा मण्डप का निर्माण हुआ है।

अगस्त्यमुनि विकास खण्ड मुख्यालय के साथ-साथ यहाँ स्नातकोत्तर महाविद्यालय भी है। यहाँ बालक व बालिका इंटर कॉलेज व पुलिस थाना भी है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता दर्शनीय है। यही वजह है कि प्रकृति के चितेरे कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य से अभिभूत होकर सशक्त कविताएँ रची थीं। बर्त्वाल जी अगस्त्यमुनि में ही अध्यापन कार्य करते तथा यहाँ से 10 कि०मी० आगे भीरी के पास रहते थे।
– रमाकान्त बेंजवाल सोशल मीडिया से साभार

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