चौथा मोक्ष द्वार: पाताल भुवनेश्वर है रहस्यों से भरी एक पवित्र गुफा

उदय दिनमान डेस्कः पाताल भुवनेश्वर उत्तराखंड के सबसे रहस्यमय और आध्यात्मिक स्थान में से एक है। समुद्र तल से 1350 मीटर की दूरी पर स्थित यह छिपी तीर्थयात्रा मुख्य रूप से भगवान शिव को समर्पित है। पाताल भुवनेश्वर एक चूना पत्थर की गुफा है जो उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में गंगोलीघाट से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पाताल भुवनेश्वर गुफा का रास्ता एक लंबी और संकरी सुरंग से होकर जाता है। भगवान शिव के अलावा शेषनाग, काल भैरव, गणेश और कई अन्य देवताओं के रूप पाताल भुवनेश्वर में देखे जा सकते हैं। यह माना जाता है कि गुफा 33 कोटी देवी-देवताओं का निवास स्थान है।

पिथौरागढ़ जिले में स्थित गंगोलीहाट तहसील के मुख्यालय से 16 किमी की दूरी पर स्थित है पाताल भुवनेश्वर. गंगोलीहाट तहसील के भुवनेश्वर गांव में समुद्र तल से 1350 मी. की ऊंचाई पर स्थित पाताल भुवनेश्वर एक प्राचीन गुफा मंदिर है. भुवनेश्वर गांव से नीचे की ओर एक भव्य मंदिर है जिसके मंदिर परिसर में काल, नील और बटुक भैरव के छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं.

प्रमुख मंदिर के गर्भगृह से पूर्व एक बाह्य कक्ष है. इस बाह्य कक्ष में जय और विजय की विशाल मूर्तियों के अतिरिक्त शिव-पार्वती की मूर्ति एवं अन्य कई छोटी-छोटी मूर्तियां बनी हैं. मंदिर के दायीं ओर चंडिका देवी का मंदिर है जिसके भीतर अष्टभुजा देवी की प्रस्तर मूर्ति स्थित है इस मूर्ति के हाथ खंडित हैं. इसके अतिरिक्त यहां एक कांसे की मूर्ति, शेषावतर की मूर्ति, सूर्य मूर्ति और एक अन्य खण्डित मूर्ति भी है.

इन मंदिरों का निर्माण बारहवीं शताब्दी में चंद और कत्यूरी राजाओं के शासन काल में किया गया था. इस मंदिर के बाई ओर एक धर्मशाला है जिसके आँगन में हनुमान जी की एक विशाल प्राचीन मूर्ति है.इन मंदिरों से आगे ही कुछ दूरी पर एक प्राकृतिक जल स्त्रोत है. जिसके बाद एक छोटा हल्का सा ढलान पड़ता है यहीं पाताल भुवनेश्वर की गुफा में प्रवेश करने के लिए उबड़-खाबड़ सीढियां बनी हैं.

सीढ़ियों से उतरकर गुफा की दीवारों में उकरी आकृतियां भक्तों की आस्था का पहला केंद्र बनती हैं. मुख्य भाग में पहुंचने पर सबसे पहले दाहिनी ओर शेषनाग की बड़ी मूर्ति है जिसने पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किया है.यहां स्थित कुंड के विषय में कहा जाता है कि राजा जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित के उद्धार हेतु उलंग ऋषि के निर्देशानुसार इसी कुंड में सर्पयज्ञ किया था.इस कुंड के ऊपर तक्षक नाग बना हुआ है.इसके आगे भगवान गणेश का कटा हुआ मस्तक शिला रूप में स्थित है. शिलामूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल है। ब्रह्मकमल से पानी भगवान गणेश के शिलारूपी मस्तक पर दिव्य बूंद टपकती है. मुख्य बूंद गणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है. ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव द्वारा इसे स्थापित किया गया है.

इसके बाद चार पाप द्वार बने हैं. माना जाता है कि तीसरा धर्मद्वार है जो कलयुग की सामप्ति पर बंद होगा. चौथा मोक्ष द्वार है. मोक्षद्वार के आगे विशाल मैदान के मध्य भाग में पुष्पों और गुच्छों से निर्मित पारिजात वृक्ष है. कहा जाता है कि द्वापर युग भगवान कृष्ण इसे देवराज इंद्र की अमरावती पुरी से मृत्युलोक में लाये थे.इस मैदान के आगे कदलीवन नामक मार्ग है मान्यता अनुसार यहां हनुमान-अहिरावण संग्राम हुआ था और हनुमान जी ने पाताल विध्वंस किया था इसके साथ ही एक मार्कण्डेय पुराण की भी रचना की थी. इसके ऊपर ब्रह्माजी के पांचवे सिर में कामधेनु गाय के थन से निकलती हुई दूध की धारा गिराती है. इस स्थान पर पितरों का तर्पण किया जाता है.

इसके बाद जलयुक्त सप्तकुंड का दृश्य निर्मित है जिसमें दिखाया गया है कि कुंड का जल सर्पों के अतिरिक्त अन्य कोई न पी सके. ब्रह्मा ने इसकी पहरेदारी के लिए एक हंस की नियुक्ति की है. मान्यता है कि एक बार यह हंस स्वयं पानी पी गया जिसके बाद मिले श्राप के कारण इसका मुंह टेढ़ा है.इस पास में स्थित एक जगह पर भगवान शंकर की जटाओं से गंगा की धारा निकल रही है. इसके नीचे तैंतीस करोड़ देवी-देवता लिंगों के रूप में आराधना करते हुये नजर आते हैं. मध्य में नर्मदेश्वर महादेव का लिंग विद्यमान है. इसके आस-पास नंदी और विश्वकर्मा कुंड बना हुआ है. यहीं पर आकाश गंगा और सप्तऋषि मंडल का दृश्य दिखाई देता है.

इसके बाद तामशक्ति युक्त एक प्राकृतिक लिंग त्रिमूर्ति है माना जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी कैलाश यात्रा के दौरान की. इसके ऊपर तीन गंगाओं की जलधारा बारी-बारी से गिरती है. यही पर मुख्य आराधना की जाती है.हिंदू किंवदंतियों के अनुसार, गुफा को सबसे पहले सूर्य वंश के राजा ऋतुपर्ण ने ‘त्रेता युग’ में खोजा था। कहा जाता है कि जब राजा नल, रितुपर्णा के मित्र, उनकी पत्नी रानी दमयंती से हार गए थे, तो उन्होंने कारावास से बचने के लिए रितुपर्णा की मदद मांगी। वे हिमालय के उन इलाकों में गए, जहां राजा नाला ने जंगल में शरण ली थी।

वापस आते समय, एक सुंदर हिरण ने रितुपर्णा का ध्यान आकर्षित किया, उन्होंने हिरण का पीछा किया, लेकिन अगर वह पकड़ नहीं पा रहा था। थके हुए रितुपर्णा ने एक पेड़ की छाँव में विश्राम किया और एक स्वप्न देखा जिसमें हिरण उसका पीछा न करने की भीख माँग रहा था। जब उनकी नींद टूटी, तो रितुपर्णा ने अपनी चढ़ाई शुरू की और किसी तरह एक गुफा में पहुंच गईं। दरवाजे पर एक आश्चर्य अतिथि होने पर, गुफा के द्वारपाल ने उनसे उसकी यात्रा के बारे में पूछा।

उनके जवाब से संतुष्ट होकर, गार्ड ने उसे गुफा में प्रवेश करने की अनुमति दी। रितुपर्णा को तब एक शेषनाग ने अभिवादन किया था, जिसने उन्हें अपने हुड पर ले लिया था। गुफा में सुशोभित देवताओं की पत्थर की मूर्तियों से राजा मुग्ध था। ऐसा कहा जाता है कि रितुपर्णा की यात्रा के बाद, गुफा युगों तक बंद रही और आदि शंकराचार्य द्वारा इसे फिर से खोजा गया। एक अन्य किंवदंती में कहा गया है कि हिमालय की अंतिम यात्रा शुरू करने से पहले, पांडवों ने शिव के सामने अपनी तपस्या की।

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