पौष्टिकता का खजाना है मंडुवा

देहरादून। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में उगाया जाने वाला मंडुवा पौष्टिकता का खजाना है। यहां की परंपरागत फसलों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य की कुल कृषि योग्य भूमि का 85 फीसद भाग असिंचित होने के बावजूद यहां इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।

मंडुवा हृदय व मधुमेह रोग से पीड़ित व्यक्तियों के लिए लाभदायक होता है। इसमें पर्याप्त पोषक तत्व होने की वजह से यह कुपोषण से बचाने में भी मददगार होता है। बाजार में मंडुवे का आटा 40 से 50 रुपये प्रति किलो के हिस्‍सा से उपलब्‍ध है।

मंडुवा बारानाजा परिवार का मुख्य सदस्य है। देश के अन्य राज्यों में इसे रागी, नागली व कोदा इत्यादि नामों से जाना जाता है। उत्तराखंड में 136 हजार हेक्टेअर क्षेत्र में इसकी खेती की जाती है। यह गरीब के घर संतुलित आहार का भी आधार है।

इसकी बहुपयोगी फसल अन्न के साथ-साथ पशुओं को चारा भी प्रदान करती है। मंडुवे से बिस्कुट, रोटी, हलुवा, नमकीन, केक जैसे उत्पाद तैयार किए जाते हैं। पहाड़ में इसकी खेती जैविक खाद से होने के कारण अत्यधिक मांग है। जानकारों के मुताबिक मंडुवा (कोदा) में जहां आयोडीन व फाइबर प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है।

गरम तासीर वाले मंडुवे का सेवन पहाड़ में नवंबर से मार्च तक प्रमुख तौर पर किया जाता है। मंडुवा बिगड़े मौसम चक्र में बारिश पर निर्भर खेती के लिए टिकाऊ विकल्प है। इसका रकबा बढ़ाने तथा काश्तकारों में इसकी खेती के प्रति ललक पैदा करने के लिए सरकार भी प्रयासरत है।

मंडुवे के दाने के बाहर एक पतली सफेद रंग की सफेद परत होती है जिसे पेरिकार्प कहा जाता है। आटा बनाने से पहले इसे हटाना जरूरी होता है, जिससे आटे की गुणवत्ता के साथ-साथ इसमें स्वाद भी बढ़ जाता है। रोटी व अन्य उत्पाद बनाने से पहले इसके आटे को छलनी से साफ कर चोकर अलग करना भी आवश्यक है।

नवदान्‍या संस्‍था के वरिष्‍ठ वैज्ञानिक डॉ विनोद कुमार भट्ट ने बताया कि मंडुवा का वैज्ञानिक नाम एलिसाइन कोराकाना है। इसे फिंगर मिलेट भी कहते हैं। इसमें प्रोटीन के कारण यह बच्चों व गर्भवती महिलाओं के लिए गुणकारी है। इसका अधिकाधिक सेवन आंखों के रतौंधी रोग के निवारण में भी सहायक होता है।

चावल व गेहूं की तुलना में अत्यधिक कैल्शियम, थार्यामन व रेशे होने की वजह से इसकी पौष्टिकता अधिक होती है। अधिक रेशा, प्रोटीन, एमीनो एसिड, खनिज तत्व से भरपूर मंडुवे का सेवन मधुमेह के रोगियों के लिए लाभकारी होता है।

मडुवे की खेती बरसात में होती है। जुलाई के प्रथम सप्ताह में इसकी पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है। रोपाई के एक पखवाड़े से बीस दिन के भीतर पहली निराई तथा एक माह से 35 दिन के भीतर दूसरी निराई करनी होती है।

आपने पहाड़ी अनाज मंडुवे (कोदा) की रोटी तो जरूर खाई होगी, लेकिन आप मंडुवा की बर्फी का लुत्फ भी लेंगे। कृषि विज्ञान केंद्र रानीचौरी (टिहरी) से मंडुवे की बर्फी बनाने का प्रशिक्षण लेकर शिक्षित बेरोजगार संदीप सकलानी और कुलदीप रावत इसे बाजार में उतारा है। औषधीय गुणों से भरपूर इस जैविक बर्फी की कीमत 400 रुपये प्रति किलो है।

हिलांस नाम से मंडुवे के बिस्किट जिले में ही नहीं अब देश के कई राज्यों में अपनी महक बिखेरेगा। अनुसूचित जनजाति मंत्रालय भारत सरकार की टीम ने मोनार में मंडुवे से बनने वाले उत्पाद का निरीक्षण कर लिया है।

इसी माह मंत्रालय का मां चिल्टा आजीविका स्वायत्त सहकारिता लोहारखेत के साथ एग्रीमेंट हो जाएगा। मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही मोनार में बन रहे मंडुवे के बिस्कुट का जिक्र किया। वैसे ही लोग मंडुवे की ओर आकर्षित होने लगे हैं।

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