दुनिया में बजा ‘नमो’ का डंका !

नई दिल्‍ली: प्रधानमंत्री मोदी का बतौर पीएम प्रथम कार्यकाल हो या दूसरा कार्यकाल विशेषज्ञों ने कहा है कि मोदी के नेतृत्व में पिछले आठ वर्षों में भारत की विदेश नीति बहुआयामी रही है। दुनिया के बारे में मोदी सरकार की सोच पुरानी बेड़ियों से मुक्‍त है। इसमें विदेश मामलों में व्‍यवहारिक रणनीति पर फोकस बढ़ा है। ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी सरकार की विदेश नीति का एजेंडा क्‍या रहा है। मोदी सरकार की विदेश नीति पिछली सरकारों से कैसे भिन्‍न रही है।

विदेश मामलों के जानकार का कहना है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने प्रथम शपथ ग्रहण समारोह के दौरान ही अपनी विदेश नीति के रूपरेखा के संकेत दे दिए थे। अपने प्रथम शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सहित दक्षेस के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था। इतना ही नहीं अपने पहले विदेश दौरे के लिए उन्होंने भारत के पड़ोसी मुल्‍क भूटान को चुना तो दूसरी बार पीएम बनने के बाद वह पहली विदेश यात्रा पर मालदीव गए।

यह सब कुछ अनयास नहीं था। उनकी यह कार्ययोजना एक रणनीति के तहत थी। मोदी की विदेश नीति में पड़ोसियों को प्राथमिकता देने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें इन देशों को लेकर भारत की दृष्टि बदली है। उन्‍होंने कहा कि भारतीय विदेश नीति में आया यह बदलाव सकारात्‍मक एवं तार्किक है। उन्‍होंने कहा कि सदा परिवर्तनशील विदेश नीति को किसी एक लकीर या सांचे के हिसाब से चलाया भी नहीं जा सकता।

उन्‍होंने कहा कि मोदी के प्रथम कार्यकाल में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्‍तान में एयरस्‍ट्राइक का मामला हो या अनुच्‍छेद 370 हटाने का मसला भारत ने अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया है। दोनों मसलों पर पाकिस्‍तान पूरी तरह से अलग-थलग हो गया। इस दौरान मोदी सरकार ने रूस और अमेरिका दोनों विरोधी देशों के साथ अपनी रिश्‍तों में निकटता बनाए रखी। यह विदेश नीति का बड़ा कौशल था।

रूसी एस-400 डिफेंस मिसाइल सिस्‍टम खरीद मामले में भारत ने य‍ह सिद्ध कर दिया कि वह अपने सामरिक संबंधों के मामले में स्‍वतंत्र है। यही कारण है कि भारत ने अमेरिकी दबाव से मुक्‍त होकर इस मिसाइल को अपनी रक्षा उपकरणों में शामिल किया। अमेरिका के तमाम विरोध के बावजूद भारत ने इस रक्षा सौदे में यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने रक्षा सौदों के मामले में किसी के दबाव में नहीं आएगा।

रूस यूक्रेन जंग के मामले में भारत की तटस्‍थता नीति का अमेरिका व पश्चिमी देशों ने जमकर विरोध किया। अमेरिका ने कहा कि भारत की तटस्‍थता नीति अमेरिकी प्रतिबंधों के प्रतिकूल है। क्‍वाड देशों में खासकर आस्‍टेलिया ने भारत की तटस्‍थता नीति की निंदा की। इन सबके बावजूद रूस यूक्रेन जंग में भारत ने अपनी तटस्‍थता नीति का पालन किया। संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद में उसने रूस के खिलाफ मतदान में हिस्‍सा नहीं लेकर अपने स्‍टैंड को और मजबूत किया।

मोदी सरकार की विदेश नीति की राह में कई चुनौतियां भी हैं। यह बात खासतौर पर तब और अहम हो जाती है, जब सरकार को स्ट्रक्चरल, संस्थागत और विचारों के स्तर पर कई सवालों के जवाब तलाशने हैं। वैश्विक व्यवस्था में जिस तेजी से बदलाव हो रहे हैं, उसमें इन चुनौतियों को हल करना और मुश्किल होगा। कई देशों के साथ साझेदारी बनाने में उसकी राजनयिक क्षमताओं की अग्निप‍रीरीक्षा होगी।

इसके साथ भारत को अपनी बढ़ती वैश्विक ताकत को भी बनाए रखना होगा, ताकि बड़े ग्लोबल पावर के उसके दावे की विश्वसनीयता बनी रहे। भारत अब ज्‍यादा वैश्विक जिम्‍मेदारी निभाने को तैयार है। ऐसे में यह ग्राउंड लेवल पर वह क्या कर पाता है, इसकी कहीं बारीक पड़ताल होगी। इसका मतलब यह भी है कि भारत अब सांस्थानिक कमजोरी को दूर करने में देरी गवारा नहीं कर सकता।

मोदी के कार्यकाल में दुनिया के परमाणु क्षमता से लैस देशों के साथ भारत के रिश्‍ते मजबूत हुए हैं। प्रो पंत का कहना है कि वर्ष 2014 से वर्ष 2022 के बीच इन देशों के साथ भारत के मधुर संबंध रहे हैं। उन्‍होंने कहा कि हालांकि, चीन ने अकेले ही एनएसजी में भारत के प्रवेश पर रोक लगा रखी है।

असैन्‍य परमाणु सहयोग के क्षेत्र में भारत ने नए करार किए हैं। परमाणु संपन्‍न देशों के साथ निकटता बढ़ाने के लिए उसने राजनीतिक समर्थन भी जुटाया है, लेकिन भारत के समक्ष एनएसजी में प्रवेश पाना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

इस सदी में भारत के समक्ष चीन संबंधी चुनौती बरकरार रहेगी। प्रो पंत ने कहा कि यह एशिया की सदी है। मोदी सरकार के समक्ष भारत प्रशांत की सच्‍चाइयों के बीच तालमेल बनाना सरकार के लिए सबसे मुश्किल चुनौती होगी। इस सदी में बनने वाले मौकों और भारत-प्रशांत की सच्‍चाइयों के बीच तालमेल बनाना सरकार के लिए सबसे मुश्किल चुनौती होगी।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रूस अपनी नाराजगी का इजहार भी कर चुका है। दोनों के बीच कई मुद्दों पर सहमति के बावजूद यह मसला आने वाले वर्षों में भारत-रूस की साझेदारी की राह में बाधा बन सकता है। उन्‍होंने कहा कि बदलती हुई क्षेत्रीय और वैश्विक व्यवस्था में भारत और रूस दोनों ही अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश करेंगे।

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