उज्जैन: होली पर्व पर उज्जैन ही नहीं मालवा-निमाड़ क्षेत्र के कई ग्रामीण इलाकों में सदियों से एक अनूठी परंपरा का निर्वहन ग्रामीण करते आ रहे हैं। ये परंपरा ‘चूल’ के नाम से प्रसिद्ध है। जिसमें धधकते अंगारों पर कोई हाथ में कलश लिए तो कोई बच्चों को लिए मन्नत मांगते हुए तो कोई मन्नत पूरी होने पर चलता है।
बता दें कि मालवा-निमाड़ के जिलों में होलिका दहन के अगले दिन इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इसके लिए बकायदा मेले जैसा आयोजन होता है। बच्चे, युवा, बुजुर्ग और महिलाएं हर कोई इस अनूठी परंपरा का हिस्सा बन खुद को सौभाग्यशाली मानते हैं।
उज्जैन जिले के बड़नगर, उन्हेल, घट्टिया तहसील के ग्रामीण इलाकों में बुधवार को ये परंपरा मनाई गई। कोई मंदिरों में मनोकामनेश्वर महादेव के आगे सर झुकाता दिखा तो कोई फाग उत्सव के गीत गाते नजर नजर आया।
बता दें कि ढोल की थाप पर मुस्कुराते चेहरों को देख कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि इनके पैर जलते होंगे। दावा ये भी है कि आज तक कभी कोई हादसा नहीं हुआ। ग्रामीण इसे भगवान का आशीर्वाद मानते हैं और अपने बच्चों को भी इस परंपरा के बारे में सिखाते हैं।
ताकि परंपरा का निर्वहन होता रहे। ग्रामीण बताते हैं कि सबसे पहले सभी ग्रामीण भगवान के धाम से पूरे गांव की परिक्रमा कर वापस भगवान के धाम पहुंचते हैं। घर-घर से लकड़ी, कंडे, घी एकत्रित किया जाता है। भगवान के धाम के सामने कहीं 11 फुट तो कहीं 21 फुट लंबा गड्डा खोदा जाता है। जिसका पहले पुजारी के माध्यम से पूजन होता है।
मंत्रोच्चारण के साथ उसमें लकड़ी डालकर मंदिर के दीपक से अग्नि प्रज्वलित की जाती है। सबसे पहले पुजारी आग पर से निकलते हैं। इसके बाद बारी-बारी से मन्नत पूरी होने वाले और मन्नत मांगने वाले ग्रामीण हाथों में कलश लिए तो कोई अपने बच्चों को लिए उसी आग में से नंगे पैर निकलते हैं।
बता दें कि, जलते अंगारों पर चलने वाली प्रथा को चूल कहा जाता है। मन्नत करने वाले और मन्नत पूरी होने पर ग्रामीण आस्था से धधकते अंगारों पर चलते हैं। ग्रामीण इलाकों में मान्यता है कि इस परंपरा का निर्वहन करने से देवीय आशीष प्राप्त होता है।