अगस्त्यमुनि की पहचान बिखौती मेला

अगस्त्यमुनि:  अगस्त्यमुनि के इतिहास के कुछ पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि एक पहचान ऋषि अगस्त्य के दक्षिण भारत से उत्तर दिशा में आने पर उनके साथ वहाँ की द्रविड़ संस्कृति का यहाँ पर आगमन और यहाँ की संस्कृति में रच बस जाना तो रह ही है तो दूसरी पहचान सदियों से यहाँ होने वाले बिखौती मेला रहा है।

राज्य बनने से पहले बैशाख संक्रांति पर होने वाला जो बिखौती मेला यहाँ की एक विशिष्ट पहचान थी राज्य बनने के बाद धीरे-धीरे उस मेले की पहचान क्षीण होती गई और अब स्थिति ये है कि हमेशा ये असमंजस बना रहता है कि कभी जो बिखौती मेला यहाँ की शान हुआ करता था और पूरे साल भर जिसका इंतज़ार रहता था आज अंतिम समय तक उसके होने या न होने पर संशय बना रहता है।

वर्ष 2013 की आपदा के बाद वर्ष 2014 में और कोविड काल को छोड़ दें तो ये बिखौती मेला बिना किसी सरकारी मदद और तामझाम के हमेशा से एक लोकोत्सव के रूप में निरन्तर होता आया है।आज भी हमारी पीढ़ी तक के लोगों से अगर बिखौती मेले की स्मृतियों के बारे में बात करें तो हम सबकी ज़िन्दगी में इस मेले की एक विशेष भूमिका रही है।

चाहे सफेद कमेडे और लाल मिट्टी से घरों की लिपाई पुताई हो या जलेबी-पकौड़ी की दुकान हो या खेल-खिलौने लेने हों पूरे वर्ष भर मन्दाकिनी घाटी के लोगों को इंतज़ार रहता था इस दिन का।इसी दिन पर ससुराल से बेटियों के मायके आने और मेले में अपने सगे-सम्बन्धियों और सहेलियों से मिलना भी एक बड़ा उद्देश्य होता था।स्थाई तौर पर यहाँ रहने वाले हम जैसे मेजबान लोगों की भी इसी दिन के लिए नाते-रिश्तेदारों के आगमन की प्रतीक्षा रहा करती थी।

व्यापारिक गतिविधियों को देखें तो स्थानीय उत्पादों के साथ-साथ भोटिया समुदाय के लोग भी गुड़,नमक,फरण, ऊनी कपडे,जड़ी-बूटी आदि की दुकानें भी लगाते थे।ऐसी तमाम सी बातें और यादें हैं जो इस मेले से जुड़ी हुई हैं।लेकिन आज इस मेले के होने या न होने पर अंतिम समय तक संशय बना रहता है। दरअसल राज्य बनने के बाद आज इस मेले का स्थान सरकारी मदद से राज्य स्थापना दिवस पर होने वाले शरदोत्सव जैसे मेले ने लिया है।

सबसे बड़ी विडंबना ये कि जिस ऐतिहासिक अगस्त्यमुनि मैदान में यह मेला सदियों से सम्पन्न होता आया है आज वह हमारे खेल विभाग की संपत्ति हो गई है जिसे वह सरकारी कार्यक्रमों के लिए तो बेहिचक दे देता है लेकिन बिखौती जैसे लोकोत्सव के लिए नहीं जो मूलतः यहाँ की एक सांस्कृतिक पहचान रहा है।बेशक खेल का मैदान भी हमारा ही है उसकी देखभाल और सुरक्षा भी हम सबकी साझी जिम्मेदारी है लेकिन हमारी अपनी सांस्कृतिक विरासत को बनाए और बचाए रखने की जिम्मेदारी किसकी है ?

सरकारी मदद से होने वाले मेले की मेला समिति और यहाँ के जनप्रतिनिधियों का अगस्त्यमुनि के बिखौती मेले के आयोजन में उनकी क्या भूमिका है या क्या राय है लेकिन अगस्त्य ऋषि की इस मिट्टी से इस भूमि के एक नागरिक होने के नाते मेरा नई पीढ़ी के उन सभी नागरिकों-युवाओं जो अपनी ऊर्जा और रचनात्मकता से बिना किसी सरकारी मदद से समय-समय पर बहुत से आयोजन बखूबी सम्पन्न करवाते आ रहे आगे आएं और चिन्तन-मनन करें कि हम सदियों से चली आ रही अपनी इस सांस्कृतिक पहचान और विरासत को संजोए रखने में कैसे अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

इस बार मेले के आयोजन स्थल के बारे में क्रीड़ा मैदान के अतिरिक्त हमारे पास जो संभावना उपलब्ध है उनमें रामलीला मैदान,नगर पंचायत का पार्किंग स्थल,विजयनगर मंदाकिनी तट आदि पर भी संभावना तलाशी जा सकती है।हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जो समाज अपना इतिहास भूल जाता है उस समाज को इतिहास भी भूल जाता है।

प्रस्तुति- गजेन्द्र रौतेला की फेसबुक वाल से साभार

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