दीपावली और सूर्य ग्रहण के बाद अब भैया दूज पर आया उत्तराखंड ज्योतिष रत्न का निर्णायक बयान
संतोष सप्ताषू
देहरादूनः भाई दूज का त्योहार हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। इस साल तिथियों को लेकर उलझन की स्थिति बनी हुई है, जिससे लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि भाई दूज किस दिन मनाएंगे। दूज कब मना सकते हैं। 26 या 27 अक्टूबर को?
दीपावली से लगातार मंत्रों एवं यंत्रों की सिद्धि हेतु साधना रत चल रहे उत्तराखंड ज्योतिष रत्न आचार्य डॉक्टर चंडी प्रसाद घिल्डियाल से बार-बार संपर्क करने के बाद उन्होंने इस त्यौहार पर लोगों के मार्गदर्शन के लिए सहज और सरल निर्णायक बयान जारी किया है ,
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि शास्त्र के अनुसार भैया दूज का त्यौहार मध्यान्ह व्यापिनी द्वितीय तिथि में ही मनाया जाना चाहिए उसका कारण स्पष्ट करते हुए वह बताते है ,कि शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि यम द्वितीया यानी भाई दूज के दिन यमराज अपनी बहन के घर दोपहर के समय आए थे और बहन की पूजा स्वीकार करके उनके घर भोजन किया था।
वरदान में यमराज ने यमुना से कहा था कि यम द्वितीया यानी भाई दूज के दिन जो भाई बहनों के घर आकर बहनों की पूजा स्वीकार करेंगे और उनके हाथों से बना भोजन करेंगे तो उनको अकाल मृत्यु का भय नहीं रहेगा। इसलिए यम द्वितीया भाई दूज में दोपहर के समय द्वितीया का अधिक महत्व है।
भाई दूज में इनकी करें पूजा
श्रीमद् भागवत व्यास पीठ पर आसीन होने वाले आचार्य चंडी प्रसाद बताते हैं कि शास्त्रों में बताया गया है कि कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि, जिस दिन दोपहर के समय होती है, उसी दिन भाई दूज का त्योहार मनाना चाहिए। इसी दिन यमराज, यमदूत और चित्रगुप्त की पूजा करनी चाहिए और इनके नाम से अर्घ्य और दीपदान भी करना चाहिए। लेकिन अगर दोनों दिन दोपहर में द्वितीया तिथि हो तब पहले दिन ही द्वितीया तिथि में यम द्वितीया भाई दूज का पर्व मनाना चाहिए।
26 अक्टूबर को ही मनाएं भाई दूज का पर्व
इस साल भाई दूज पर यही स्थिति बनी हुई है कि दो दिन यानी 26 और 27 अक्टूबर को कार्तिक कृष्ण द्वितीया तिथि लग रही है। 26 अक्टूबर को दिन में 02 बजकर 43 मिनट से भाई दूज का पर्व मनाना शुभ रहेगा, जो 27 अक्टूबर को दोपहर 01 बजकर 18 मिनट से 03 बजकर 30 मिनट तक रहेगा। ऐसे में 26 अक्टूबर को ही भाई दूज का पर्व मनाना शास्त्र के अनुकूल रहेगा।
27 अक्टूबर को यह है पूजा का शुभ मुहूर्त
ज्योतिष शास्त्र के निर्णय सिंधु कहलाने वाले आचार्य चंडी प्रसाद घिल्डियाल लोगों का सरल मार्गदर्शन करते हुए बताते हैं ,कि देश ,काल और परिस्थिति के अनुसार उदया तिथि के हिसाब से भी त्योहार को मनाया जाता है। ऐसे में जहां पर लोग उदया तिथि को मानते हैं, वहां पर 27 अक्टूबर को भी भाई दूज की पूजा कर सकते हैं।
27 अक्टूबर को जो लोग भाई दूज का पर्व मनाएंगे, उनके लिए शुभ मुहूर्त 11 बजकर 07 मिनट से 12 बजकर 46 मिनट तक ही रहेगा। इस तरह इस साल रक्षा बंधन की तरह भाई दूज का त्योहार भी दो दिन मनाया जाएगा। लोग अपनी परंपरा और लोकाचार के अनुसार, 26 और 27 अक्टूबर में से जिस दिन चाहें सुझाए गए समय के अनुसार भाई दूज का पर्व मना सकते हैं।
यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आचार्य डॉक्टर चंडी प्रसाद घिल्डियाल समय-समय पर चाहे त्योहारों का मसला हो अथवा सौरमंडल में ग्रहों की हलचल हो जनमानस का निशुल्क समय पर मार्गदर्शन करके सनातन धर्म परंपरा का बखूबी संरक्षण कर रहे हैं इसलिए राज्य के तमाम संगठन मुख्यमंत्री से राजगुरु का सम्मान देने की मांग कर रहे हैं.
डॉक्टर चंडी प्रसाद घिल्डियाल वास्तव में वर्षों से जनता का सटीक ज्योतिषीय एवं शास्त्रीय मार्गदर्शन कर रहे हैं, उनको राजगुरु का पद देने से सरकार को किसी प्रकार का अतिरिक्त वित्तीय भार भी नहीं पड़ेगा क्योंकि वह स्वयं संस्कृत शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग के सरकारी अधिकारी भी है, और उनको इस प्रकार का सम्मान देने से पूरे सनातन धर्म प्रेमियों का सम्मान भी हो जाएगा.
भ्रातृ द्वितीया (भाई दूज) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाने वाला हिन्दू धर्म का पर्व है जिसे यम द्वितीया भी कहते हैं। यह दीपावली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है एवं बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को पूर्व काल में यमुना ने यमराज को अपने घर पर सत्कारपूर्वक भोजन कराया था। उस दिन नारकी जीवों को यातना से छुटकारा मिला और उन्हें तृप्त किया गया। वे पाप-मुक्त होकर सब बंधनों से छुटकारा पा गये और सब के सब यहां अपनी इच्छा के अनुसार सन्तोषपूर्वक रहे।
उन सब ने मिलकर एक महान् उत्सव मनाया जो यमलोक के राज्य को सुख पहुँचाने वाला था। इसीलिए यह तिथि तीनों लोकों में यम द्वितीया के नाम से विख्यात हुई।जिस तिथि को यमुना ने यम को अपने घर भोजन कराया था, उस तिथि के दिन जो मनुष्य अपनी बहन के हाथ का उत्तम भोजन करता है उसे उत्तम भोजन समेत धन की प्राप्ति भी होती रहती है।
समझदार लोगों को इस तिथि को अपने घर मुख्य भोजन नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनी बहन के घर जाकर उन्हीं के हाथ से बने हुए पुष्टिवर्धक भोजन को स्नेह पूर्वक ग्रहण करना चाहिए तथा जितनी बहनें हों उन सबको पूजा और सत्कार के साथ विधिपूर्वक वस्त्र, आभूषण आदि देना चाहिए। बहन के हाथ का भोजन उत्तम माना गया है। सगी बहन के अभाव में अन्य बहनें के हाथ का भोजन करना चाहिए जैसे अपने चाचा, मामा, मौसी की पुत्री को या या अच्छे मित्र की बहन को भी बहन मानकर
बहन को चाहिए कि वह भाई को शुभ आसन पर बिठाकर उसके हाथ-पैर धुलाये, स्वयं स्पर्श नहीं करे। गंधादि से उसका सम्मान करे और दाल-भात, फुलके, कढ़ी, सीरा, पूरी, चूरमा अथवा लड्डू, जलेबी, घेवर, पायसम (दूध की खीर) या जो भी उपलब्ध हो यथा सामर्थ्य उत्तम पदार्थों का भोजन कराये। भाई बहन को अन्न, वस्त्र आदि देकर उसके चरण स्पर्श कर शुभाशीष प्राप्त करे।
एक उच्चासन (मोढ़ा, पीढ़ी) पर चावल के घोल से पांच शंक्वाकार आकृति बनाई जाती है। उसके बीच में सिंदूर लगा दिया जाता है। आगे में स्वच्छ जल, 6 कुम्हरे का फूल, सिंदूर, 6 पान के पत्ते, 6 सुपारी, बड़ी इलायची, छोटी इलाइची, हर्रे, जायफल इत्यादि रहते हैं। कुम्हरे का फूल नहीं होने पर गेंदा का फूल भी रह सकता है। बहन भाई के पैर धुलाती है। इसके बाद उच्चासन (मोढ़े, पीढ़ी) पर बैठाती है और अंजलि-बद्ध होकर भाई के दोनों हाथों में चावल का घोल एवं सिंदूर लगा देती है। हाथ में मधु, गाय का घी, चंदन लगा देती है।
इसके बाद भाई की अंजलि में पान का पत्ता, सुपारी, कुम्हरे का फूल, जायफल इत्यादि देकर कहती है – “यमुना ने निमंत्रण दिया यम को, मैं निमंत्रण दे रही हूं अपने भाई को; जितनी बड़ी यमुना जी की धारा, उतनी बड़ी मेरे भाई की आयु।” यह कहकर अंजलि में जल डाल देती है। इस तरह तीन बार करती है, तब जल से हाथ-पैर धो देती है और कपड़े से पोंछ देती है। टीका लगा देती है। इसके बाद भुना हुआ मखान खिलाती है। भाई बहन को अपनी सामर्थ्य के अनुसार उपहार देता है। इसके बाद उत्तम पदार्थों का भोजन कराया जाता है।
स्पष्ट है कि इस व्रत में बहन को अन्न-वस्त्र, आभूषण आदि इच्छानुसार भेंट देना तथा बहन के द्वारा भाई को उत्तम भोजन कराना ही मुख्य क्रिया है। यह मुख्यतः भाई-बहन के पवित्र स्नेह को अधिकाधिक सुदृढ़ रखने के उद्देश्य से परिचालित व्रत है।
भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ० पी० वी० काणे के अनुसार भ्रातृ द्वितीया का उत्सव एक स्वतंत्र कृत्य है, किंतु यह दिवाली के तीन दिनों में संभवतः इसीलिए मिला लिया गया कि इसमें बड़ी प्रसन्नता एवं आह्लाद का अवसर मिलता है जो दीवाली की घड़ियों को बढ़ा देता है।