देहरादून। 120 मेगावाट की व्यासी जल विद्युत परियोजना की झील में 630 मीटर पानी भरा जा चुका है। इसी के साथ परियोजना की टेस्टिंग का कार्य भी तेज कर दिया गया है। इधर, गांव छोड़ने के बावजूद ग्रामीण भी झील के किनारे बैठकर उन सुनहरे पलों को याद करते रहे, जो उन्होंने गांव के पंचायती आंगन, घर व खेत-खलिहानों में बिताए होंगे।
यमुना की तलहटी में बसे गांव लोहारी में डूबने से पहले चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। खेतों में लहलहाती धान और गेहूं की फसल किसानों में उम्मीदें जगाया करती थीं। पंचायती आंगन में पर्व-त्योहारों पर होने वाले झेंता, रासो, हारुल व नाटियों लोकनृत्य हर किसी को थिरकने के लिए मजबूर कर देते थे।
लकड़ी से बने व पक्के रंग-बिरंगे मकान, नक्काशीदार दरवाजे लोहारी गांव की शान हुआ करते थे। लेकिन, अब ग्रामीणों के पास सिर्फ यादें ही शेष हैं। बुजुर्गों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिस गांव में उनकी कई पीढ़ियां पली-बढ़ी हों, उससे बिछुड़ने की पीड़ा वो शब्दों में बयान नहीं कर पा रहे।
इस दौरान बांध प्रभावित सुखपाल तोमर, यशपाल चौहान, नरेश चौहान, दिनेश चौहान, कुंवर सिंह, राजेंद्र तोमर, रमेश चौहान, रणवीर सिंह, विक्रम सिंह, सोहन लाल, विजय चौहान, राजपाल, प्रवीण तोमर, ब्रह्मी देवी, आशा चौहान, रेखा चौहान, सुहाना चौहान, बिजमा तोमर, रोशनी चौहान, विमला देवी, सुचिता चौहान तोमर, प्रमिला, विमला चौहान, गुल्लो देवी, मीरा चौहान आदि ने बताया कि कोई भी सरकार ठीक से लोहारी गांव के दर्द को नहीं समझ पाई।
लोहारी के बांध विस्थापितों का कहना है कि विस्थापन से पूर्व सरकार को एक अलग गांव बसाना चाहिए था, मगर सरकार ऐसा नहीं कर पाई। नतीजा परेशान ग्रामीणों को आनन-फानन में अपना सामान खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर होना पड़ा है। 1777.30 करोड़ की यह परियोजना धरातल पर तो उतर गई, मगर लोहारी का दर्द किसी ने नहीं समझा।
सोहनलाल तोमर (निवासी लोहारी) ने कहा कि सरकार को जमीन के बदले जमीन देनी चाहिए थी, लेकिन सिर्फ जमीन अधिग्रहण कर मुआवजा देकर ग्रामीणों को बेघर कर दिया गया। हमारे लिए कोई पुनर्वास की व्यवस्था नहीं है। इसलिए खुले आसमान के नीचे पड़े हैं।
गुल्लो देवी (निवासी लोहारी) का कहना है कि हमने अपने गांव को जल समाधि लेकर देश और राज्य को रोशन करने का काम किया है। लेकिन, हमारी सुध लेने को कोई तैयार नहीं। देश हित में योगदान देने वालों की भी सुनी जानी चाहिए।