उदय दिनमान डेस्कः नरभक्षी पढ़कर आप समझ ही गये होंगे और आपने अभी तक कई कहानियां इनके बारे में पढ़ी होंगी। आज के गूगल युग में अगर इस पर चर्चा की जाए तो हर कोई इनके बारे में जानना चाहेगा। हम आपको बता दें कि आज भी दुनियां के एक कौने में ऐसे लोग रहते है जिन्हें नरभक्षी कहा जाता है। यह हम नहीं कह रहे हैं आप इंटरनेट पर इनके बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यहां हमारा उद्देश्य आपको डराने का नहीं बल्कि एक ऐसी आदिवासी जाति के बारे में बताना है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आज भी इंसानों का मांस खाते है और पेड़ों पर रहते हैं। चलिए जानते हैं इनके बारे में विस्तार से-
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी कई जनजातियां हैं, जो अपने आप में किसी रहस्य से कम नहीं है, चाहे वो अफ्रीकन आदिवासी हों या फिर अमेजन के जनजाति। ऐसी ही एक जनजाति है कोरोवाई, जो दक्षिण-पूर्वी इंडोनेशिया के पापुआ प्रांत के घने जंगल में पेड़ों पर घर बनाकर रहती है। इस जनजाति को नरभक्षी भी कहा जाता है। इनकी खोज सन् 1974 में एक डच मिशनरी द्वारा की गई थी। 90 के दशक के बाद इस क्षेत्र में बाहरी लोगों का आना-जाना बढ़ा, जिसके कारण यहां वेश्यावृति का प्रसार भी होने लगा। हालांकि, देह व्यापार यहां 1999 में समाप्त कर दिया गया।
बता दें कि कोरोवाई जनजाति जिस क्षेत्र में निवास करती है, वो अराफुरा सागर से तकरीबन 150 किमी की दूरी पर स्थित है। इनका बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं है। ये लोग जमीन से 6 से 12 मीटर ऊंचाई पर पेड़ों पर बने घरों में रहते हैं, ताकि इन पर कोई आक्रमण न कर सके और ये लोग बुरी आत्माओं से भी बचे रहें। इस जनजाति के लोग जीवनयापन करने के लिए शिकार करते हैं। इनका निशाना बहुत बेहतर होता है। बता दें कि इस जनजाति की खोज के बाद इस पर कई लेख लिखे गए और डॉक्युमेंट्री भी बनाई गई।
साउथ अफ्रीका में एक जंगल है जिस जंगल का नाम है आमोजन । इतने घने और इतने बड़े जंगल हैं जहां बाहरी आदमी जाने में पाबंदी लगा हुआ है सरकार की तरफ से । यदि कोई व्यक्ति गलती से उस जंगल मैं चले जाएं तो उनकी किस्मत बहुत ही भयानक हो सकता है बोलो तो बाहरी आदमी को देखने से जंगली इंसान उसे उसी सन खा जाएंगे । उस जंगल के अंदर यदि कोई बाहरी आदमी चले जाए तो वह वापस कभी लौटते नहीं । ऐसे कई बार हो चुका है बहुत बाहरी आदमी लापता । इसीलिए साउथ अफ्रीका के सरकार जंगल में जाने के लिए पाबंदी लगा कर रखे हैं ।
खासकर लाइबेरिया और कांगो में, अनेक युद्धों में हाल ही में नरभक्षण के अभ्यास देखने को सामने आया है । आज, बहुत ही कम जनजातियों में एक कोरोवाई हैं जो सांस्कृतिक अभ्यास के रूप में अभी भी मानव मांस खाने में विश्वास करते हैं। विभिन्न मेलेनिशियन जनजातियों में रस्म-रिवाज के रूप में और युद्ध में अब भी इसका प्रचलित है ।
ऐतिहासिक रूप से, औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा आदिम मानव बताये जाने वालों को गुलाम बनाने के कृत्य के औचित्य के लिए इंसान के मांस खाने वाले को आरोप का उपयोग किया गया था । सांस्कृतिक सापेक्षवाद की सीमा के परीक्षण के लिए कहा गया कि नरभक्षक मानवविज्ञानियों को चुनौती दे रहा है ” यदि कोई मनुष्य ही मनुष्य के मांस खाते हैं तो यह विश्वास करना भी बहुत कठिन होती हैं ।
अतीत में दुनिया भर के मनुष्यों के बीच व्यापक रूप से नरभक्षण का प्रचलन रहा था, जो 19वीं शताब्दी तक कुछ अलग-थलग दक्षिण प्रशांत महासागरीय देशों की संस्कृति में अभी भी चल रहे हैं; और, कुछ मामलों में द्वीपीय मेलेनेशिया में, जहां मूलरूप से मांस-बाजारों का अस्तित्व था।फिजी को कभी ‘नरभक्षी द्वीप’ (कैंनिबल आइलैंड) के नाम से जाना जाता था। माना जाता है कि निएंडरथल मनुष्य को भजन किया करते थे,और हो सकता है कि आधुनिक मनुष्यों द्वारा उन्हें ही कैनिबलाइज्ड अर्थात् विलुप्त कर दिया गया हो।
जिन मनुष्य की अकाल मृत्यु होती है उन्हें उसी जगह के लोगों ने खा जाते थे , जैसा कि अनुमान लगाया गया है कि ऐसा औपनिवेशिक रौनोक द्वीप में हुआ था। कभी-कभी यह आधुनिक समय में भी हुआ है। एक प्रसिद्ध उदाहरण है उरुग्वेयन एयर फ़ोर्स फ्लाइट 571 की दुर्घटना, जिसके बाद कुछ बचे हुए यात्रियों ने मृतकों को खाया ।इसके अलावा, कुछ मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति दूसरों को खाने और नरभक्षण करने के मामले में ग्रस्त रहे हैं, जैसे कि जेफरी डाहमर और अल्बर्ट फिश. नरभक्षक पर मानसिक विकार का लेबल लगाने का औपचारिक रूप से विरोध किया गया है।पुराना कथाओं, अनुसार और कलाकृतियों में नरभक्षक का विषय दर्शाया गया है; उदाहरणस्वरुप, 1819 में फ्रांसिसी शिला मुद्रक थियोडोर गेरीकौल्ट नेद राफ्ट ऑफ़ द मेडुसा में नरभक्षण को पहचान किया गया था ।